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आज जगद्गुरु आदि शंकराचार्य जी की जयंती मनाई जा रही है. भारत में चार मठों की स्थापना करने वाले शंकराचार्य का जन्म वैशाख की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आठवीं सदी में केरल में हुआ था. शंकराचार्य के पिता की मत्यु उनके बचपन में ही हो गई थी. बचपन से ही शंकराचार्य का रुझान संन्यासी जीवन की तरफ था. लेकिन उनके मां नहीं चाहती थीं कि वो संन्यासी जीवन अपनाएं.
कथा
ब्राह्राण दंपति के विवाह होने के कई साल बाद भी कोई संतान नहीं हुई. संतान प्राप्ति के लिए ब्राह्राण दंपति ने भगवान शंकर की आराधना की. उनकी कठिन तपस्या से खुश होकर भगवान शंकर ने सपने में उनको दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा. इसके बाद ब्राह्राण दंपति ने भगवान शंकर से ऐसी संतान की कामना की जो दीर्घायु भी हो और उसकी प्रसिद्धि दूर दूर तक फैले. तब भगवान शिव ने कहा कि या तो तुम्हारी संतान दीर्घायु हो सकती है या फिर सर्वज्ञ. जो दीर्घायु होगा वो सर्वज्ञ नहीं होगा और अगर सर्वज्ञ संतान चाहते हो तो वह दीर्घायु नहीं होगी.
तब ब्राह्राण दंपति ने वरदान के रूप में दीर्घायु की बजाय सर्वज्ञ संतान की कामना की. वरदान देने के बाद भगवान शिव ने ब्राह्राण दंपति के यहां संतान रूप में जन्म लिया. वरदान के कारण ब्राह्राण दंपति ने पुत्र का नाम शंकर रखा. शंकराचार्य बचपन से प्रतिभा सम्पन्न बालक थे. जब वह मात्र तीन साल के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया. तीन साल की उम्र में ही उन्हें मलयालम भाषा का ज्ञान प्राप्त कर लिया था.
कम उम्र में उन्हें वेदों का पूरा ज्ञान हो गया था और 12 वर्ष की उम्र में शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था. 16 वर्ष की उम्र में वह 100 से भी अधिक ग्रंथों की रचना कर चुके थे. बाद में माता की आज्ञा से वैराग्य धारण कर लिया था. मात्र 32 साल की उम्र में केदारनाथ में उन्होंने समाधि ले ली. आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार के लिए देश के चारों कोनों में मठों की स्थापना की थी जिसे आज शंकराचार्य पीठ कहा जाता है.