महासमर में गाण्डीवधारी अर्जुन कौरवों का संहार कर रहे थे. जिधर श्रीकृष्ण रथ को घुमाते थे, उधर अर्जुन के बाणों से बड़े-बड़े महारथी तथा विशाल सेना मारी जाती थी. द्रोणाचार्य की मृत्यु के पश्चात कौरव सेना भाग खड़ी हुई. इसी बीच अचनाक महर्षि वेदव्यासजी स्वेच्छा से घूमते हुए अर्जुन के पास आ गए. उन्हें देखकर जिज्ञासावश अर्जुन ने उनसे पूछा – महर्षे ! शत्रुसेना का संहार जब मैं अपने बाणों से कर रहा था, उस समय मैंने देखा कि एक तेजस्वी महापुरुष हाथ में त्रिशूल लिये हमारे रथ के आगे – आगे चल रहे थे. सूर्य के समान तेजस्वी महापुरुष का पैर जमीन पर नहीं पड़ता था. त्रिशूल का प्रहार करते हुए भी वे उसे हाथ से कभी नहीं छोड़ते थे. उनके तेज से उस एक ही त्रिशूल से हजारों नये-नये त्रिशूल प्रकट होकर शत्रुओं पर गिरते थे. उन्होंने ही समस्त शत्रुओं को मार भगाया है. किंतु लोग समझते हैं कि मैंने ही उन्हें मारा और भगाया है. भगवन ! मुझे बताइये, वे महापुरुष कौन थे ? कमण्डलु और माला धारण किये हुए महर्षि वेदव्यास ने शान्त भाव से उत्तर दिया – वीरवर ! प्रजापतियों में प्रथम, तेजः स्वरुप, अन्तर्यामी तथा सर्वसमर्थ भगवान् शंकर के अतिरक्त उस रोमांचकारी घोर संग्राम में अश्वत्थामा, कर्ण और कृपाचार्य आदि के रहते हुए कौरव सेना का विनाश दूसरा कौन कर सकता था. तुमने उन्हीं भुवनेश्वर का दर्शन किया है. उनके मस्तक पर जटाजूट तथा शरीर पर वल्कल वस्त्र शोभा देता है. भगवान भव भयानक होकर भी चंद्रमा को मुकुट रुप से धारण करते हैं. साक्षात् भगवान शंकर ही वे तेजस्वी महापुरुष हैं, जो कृपा करके तुम्हारे आगे-आगे चला करते हैं. जिनके हाथों में त्रिशूल, ढाल, तलवार और पिनाक आदि शस्त्र शोभा पाते हैं, उन शरणागतवत्सल भगवान् शिव की आराधना करनी चाहिए. एक बार ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त करके तीन असुर-तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली आकाश में विमान के रुप में नगर बसाकर रहने लगे. घमण्ड में फूलकर ये भयंकर दैत्य तीनों लोकों को कष्ट पहुंचाने लगे. देवराज इन्द्र उनका नाश करने में सफल नहीं हो पाये. देवातओं की प्रार्थना पर भगवान् शंकर ने उन तीनों पुरों को भस्क कर दिया, उस समय पार्वती जी भी कौतूहलवश देखने के लिए वहां आयीं. उनकी गोद में एक बालक था. वे देवताओं से पूछने लगीं – पहचानो, ये कौन हैं ? इस प्रश्न से इन्द्र के ह्रदय में असूया की आग जल उठी और उन्होंने जैसी ही उस बालक पर वज्र का प्रहार करना चाहा, तत्क्षण उस बालक ने हंसकर उन्हें स्तम्भित कर दिया. उनकी वज्रसहित उठी हुई बांह ज्यों-की-त्यों रह गई. वे इंद्र को लेकर शंकर जी के पास पहुंचे. ब्रह्माजी शंकर जी को प्रणाम करके बोले – भगवान ! आप ही विश्व को सहारा तथा सबको शरण देने वाले हैं. भूत और भविष्य के स्वामी जगदीश्वर ! ये इंद्र आपके क्रोध से पीड़ित हैं, इन पर कृपा कीजिए. सर्वात्मा महेश्वर प्रसन्न हो गए. देवताओं पर कृपा करने के लिए वे ठठाकर हंस पड़े. सबने जान लिया कि पार्वती जी की गोद में चराचर जगत के स्वामी भगवान शंकर जी थे. वे सभी मनुष्यों का कल्याण चाहते हैं, इसलिए उन्हें शिव कहते हैं. वेद, वेदांग, पुराण तथा अध्यात्मशास्त्रों में परम रहस्य है, वह भगवान महेश्वर ही हैं. अर्जुन, यह है महादेव जी की महिमा.
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