आज भले ही हमारा देश शिक्षा के मामले में कुछ देशों से पिछड़ा है। यहां के छात्र बाहर जाकर पढ़ाई कर रहे हैं। लेकिन एक वक्त ऐसा भी था, जब दुनियाभर से लोग नालंदा विश्वविद्यालय में आकर पढ़ाई करते थे। दुनियाभर में अपनी शिक्षा-दीक्षा के लिए नालंदा विश्वविद्यालय मशहूर था। लेकिन समय की बिडंबना देखिए कि कभी नालंदा विश्वविद्यालय देश-विदेश के छात्रों से गुलजार हुआ करता था, लेकिन आज पूरा विश्वविद्यालय परिसर खंडहर में बदल गया। वेद मंत्रों की उद्घोष से रुबरु होता शिक्षा का ये मंदिर आज विराने में बदल गया है। नालंदा....नालम और दा...नालम यानि कमल और दा यानि देने वाला...मतलब ज्ञान देने वाला...या इसे ज्ञान का केन्द्र भी कह सकते हैं। कुछ लोगों ने तो इसे दो शब्दों नहीं बल्कि तीन शब्दों ना...अलम...और दा...जिसका अर्थ होता है, बिना किसी रुकावट के ज्ञान देने वाला। आपको यहां ये जान कर हैरानी होगी और शायद कम ही लोगों को पता होगा कि दुनिया की सबसे पुरानी यूनिवर्सिटी तक्षशिला के बाद दुनिया की सबसे पुरानी और एशिया की दूसरी सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी नालंदा थी। जिसकी स्थापना गुप्त वंश के शासक कुमार गुप्त प्रथम ने की थी। इस यूनिवर्सिटी की संरचना स्थापत्य कला का एक अद्भूत नमूना थी... विशाल परिसर से घिरे नालंदा विश्वविद्यालय के पूरा परिसर में प्रवेश के लिए एक ही मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। यहां की दीवारें इतनी चौड़ी हैं कि इनके ऊपर ट्रक भी चलाया जा सकता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस विश्वविद्यालय में तीन सौ कमरों के साथ सात बड़े-बड़े हॉल थे, जहां करीब 10 हजार छात्र एक साथ पढ़ाई करते थे, जो भारत के अलावा कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस और तुर्की से आते थे। इन छात्रों को पढ़ाने के लिए यहां 2 हजार शिक्षकों की व्यवस्था थी। ये दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय था और यहां प्रवेश पाना कोई आम बात नहीं थी। बहुत मुश्किल से यहां छात्रों का नामांकन हो पाता था। छात्रों को प्रवेश परीक्षा के तीन कठिन दौर से गुजरना पड़ता था। लेकिन खास बात ये भी थी कि यहां अगर एकबार किसी का दाखिला हो गया तो उनका यहां रहना खाना बिल्कुल मुफ्त रहता था। यूनिवर्सिटी का पूरा खर्च वहां के राजघराने और अन्य राजाओं के साथ ग्रामीणों की आर्थिक सहायता से चलता था। इतिहास की माने तो नालंदा ने एक नहीं बल्कि तीन-तीन आक्रमण झेले। सबसे पहला आक्रमण स्कन्दगुप्त के समय 455-467 ई. में मिहिरकुल के नेतृत्व में हूणों ने किया था, लेकिन स्कन्दगुप्त के वंशजों ने न सिर्फ नालंदा को दोबारा बनाया बल्कि इसे पहले से भी बड़ा और मजबूत बनाया। फिर सन् 1161 ई.पू में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने भारत पर आक्रमण कर यहां की धन संपदा को जमकर लूटा और साथ ही नालंद के सबसे बड़े वैद्य शीलभद्र की तेज बुद्धि से हारने के बाद और बदला लेने के ख्याल से शीलभद्र की ज्ञानस्थली को ही पूरी तरह से नष्ट करने के उद्देश्य से पूरे विश्वविद्यालय को जलाकर राख कर दिया। कहते हैं कि बख्तियार खिलजी ने जिस समय इस विश्वविद्यालय में आग लगाई थी, उस समय यहां 90 हजार से ज्यादा किताबें थीं, जो कई महीनों तक जलती रही। हालांकि उसके बाद भी गुप्त वंश के शासक स्कंदगुप्त और उसके बाद सम्राट हर्षवर्धन ने नालंदा विश्वविद्यालय को एक नया जीवन देने की पूरी कोशिश की। लेकिन बदलते वक्त के साथ भारत का ये गौरवशाली इतिहास खंडहर में तब्दील हो गया।
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