सावन के महीने को भगवान शिव का महीना भी कहा जाता है। सावन का महीना जैसे ही आता है, सड़कों पर कावंडियों की भीड़ देखने को मिलती है। ज्यादातर गेरुआ कपड़ों में अपने कांधे पर कांवड़ उठाए यह कांवड़िये पवित्र नदियों से जल लाकर अपने-अपने शिवालयों में भगवान शिव को अर्पित करते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा है, कांवड़ में ही जल रख कर क्यों लाया जाता है? कावड़ होती क्या है? और इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई? सावन का महीना शुरू होते ही केसरिया कपड़े पहने गंगा का पवित्र जल शिवलिंग पर चढ़ाने लाखों की तादात में शिव भक्त अपने घरों से निकल पड़ते हैं। बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड सहित देश के कई हिस्सों में पूरे महीने उत्सव जैसा माहौल रहता है। सड़कों पर बोल बम का उद्घोष करते, केसरिया कपड़ों में कांधे पर कांवड़ उठाए, ये कावंडियां निकल पड़ते हैं अपने-अपने इलाके की पवित्र नदी की तरफ और फिर जल भर कर उस पात्र को कांवड़ में रख कर लाते हैं और अपने आराध्य देव भगवान शिव पर अर्पित करते हैं। कांवड़ को लेकर अलग-अलग हैं मान्यताएं कांवड़ परंपरा की शुरुआत को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले महऋषि जमदाग्नि और रेणुका के पुत्र परशुराम ने भगवान भोलेनाथ पर जलाभिषेक किया था। उन्होंने उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में स्थित पुरा महादेव मंदिर में जलाभिषेक किया था। परशुराम जी ने इस प्राचीन शिवलिंग का अभिषेक गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जल को कांवड़ पर लाकर किया था। कहते हैं कि तब से ही कांवड़ की परंपरा की शुरुआत हुई। कुछ मान्यताओं की मानें तो भगवान शिव के अनन्य भक्त दशानन रावण ने सावन के पवित्र महीने में कांवड़ से जल लाकर पुरा महादेव और बैजनाथ ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक किया था और भोलेनाथ को प्रसन्न कर वरदान में शिव कवच प्राप्त किया था और तब से कांवड़ परंपरा की शुरुआत की। कितने प्रकार की होती है कांवड़ यात्रा? सावन के महीने में कांवड़ पर जल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करने का एक विशेष महत्व है। हालांकि कांवड़ शब्द सुनने में तो बहुत आसान लगता है लेकिन इसे लेकर शिवालयों तक पहुंचने का सफर बहुत कठिन होता है। दरअसल कांवड़ को लेकर चलने की इस यात्रा को कांवड़ यात्रा कहते हैं, जो चार तरह की होती है। सामान्य कांवड़ यात्रा सामान्य कांवड़ यात्रा में कांवड़िये यात्रा के दौरान रुक-रुक कर, आराम करते हुए अपनी यात्रा पूरी करते हैं और साथ ही इस दौरान वो अपनी कांवड़ को स्टैंड पर रख सकते हैं। डाक कांवड़ यात्रा डाक कांवड़ यात्रा में कांवड़िये यात्रा को शिवालय पहुंच कर ही विराम देते हैं। इस यात्रा को बगैर रुके एक निश्चित समय में तय करनी पड़ती है। इस कांवड़ यात्रा को कठिन यात्रा की श्रेणी में रखा गया है। खड़ी कांवड़ यात्रा खड़ी कांवड़ यात्रा में भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई ना कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वो कांवड़िये आराम करते हैं तो उनके सहयोगी अपने कांधे पर कांवड़ को थाम लेते हैं। दांडी कांवड़ यात्रा दांड़ी कांवड़ यात्रा में भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड यानि दण्डौती देते हुए पूरी करते हैं। मतलब कावड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेटकर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं। ये एक मुश्किल यात्रा होती है, जिसे पूरा करने में कभी-कभी एक महीने या उससे ज्यादा का भी वक्त लग जाता है। SAWAN SPECIAL: सावन में कांवड़ पर ही जल रख कर क्यों लाया जाता है और कितने प्रकार की होती है कांवड़? सावन के महीने को भगवान शिव का महीना भी कहा जाता है। सावन का महीना जैसे ही आता है, सड़कों पर कावंडियों की भीड़ देखने को मिलती है। ज्यादातर गेरुआ कपड़ों में अपने कांधे पर कांवड़ उठाए यह कांवड़िये पवित्र नदियों से जल लाकर अपने-अपने शिवालयों में भगवान शिव को अर्पित करते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा है, कांवड़ में ही जल रख कर क्यों लाया जाता है? कावड़ होती क्या है? और इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई? सावन का महीना शुरू होते ही केसरिया कपड़े पहने गंगा का पवित्र जल शिवलिंग पर चढ़ाने लाखों की तादात में शिव भक्त अपने घरों से निकल पड़ते हैं। बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड सहित देश के कई हिस्सों में पूरे महीने उत्सव जैसा माहौल रहता है। सड़कों पर बोल बम का उद्घोष करते, केसरिया कपड़ों में कांधे पर कांवड़ उठाए, ये कावंडियां निकल पड़ते हैं अपने-अपने इलाके की पवित्र नदी की तरफ और फिर जल भर कर उस पात्र को कांवड़ में रख कर लाते हैं और अपने आराध्य देव भगवान शिव पर अर्पित करते हैं। कांवड़ को लेकर अलग-अलग हैं मान्यताएं कांवड़ परंपरा की शुरुआत को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले महऋषि जमदाग्नि और रेणुका के पुत्र परशुराम ने भगवान भोलेनाथ पर जलाभिषेक किया था। उन्होंने उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में स्थित पुरा महादेव मंदिर में जलाभिषेक किया था। परशुराम जी ने इस प्राचीन शिवलिंग का अभिषेक गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जल को कांवड़ पर लाकर किया था। कहते हैं कि तब से ही कांवड़ की परंपरा की शुरुआत हुई। कुछ मान्यताओं की मानें तो भगवान शिव के अनन्य भक्त दशानन रावण ने सावन के पवित्र महीने में कांवड़ से जल लाकर पुरा महादेव और बैजनाथ ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक किया था और भोलेनाथ को प्रसन्न कर वरदान में शिव कवच प्राप्त किया था और तब से कांवड़ परंपरा की शुरुआत की। कितने प्रकार की होती है कांवड़ यात्रा? सावन के महीने में कांवड़ पर जल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करने का एक विशेष महत्व है। हालांकि कांवड़ शब्द सुनने में तो बहुत आसान लगता है लेकिन इसे लेकर शिवालयों तक पहुंचने का सफर बहुत कठिन होता है। दरअसल कांवड़ को लेकर चलने की इस यात्रा को कांवड़ यात्रा कहते हैं, जो चार तरह की होती है। सामान्य कांवड़ यात्रा सामान्य कांवड़ यात्रा में कांवड़िये यात्रा के दौरान रुक-रुक कर, आराम करते हुए अपनी यात्रा पूरी करते हैं और साथ ही इस दौरान वो अपनी कांवड़ को स्टैंड पर रख सकते हैं। डाक कांवड़ यात्रा डाक कांवड़ यात्रा में कांवड़िये यात्रा को शिवालय पहुंच कर ही विराम देते हैं। इस यात्रा को बगैर रुके एक निश्चित समय में तय करनी पड़ती है। इस कांवड़ यात्रा को कठिन यात्रा की श्रेणी में रखा गया है। खड़ी कांवड़ यात्रा खड़ी कांवड़ यात्रा में भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई ना कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वो कांवड़िये आराम करते हैं तो उनके सहयोगी अपने कांधे पर कांवड़ को थाम लेते हैं। दांडी कांवड़ यात्रा दांड़ी कांवड़ यात्रा में भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड यानि दण्डौती देते हुए पूरी करते हैं। मतलब कावड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेटकर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं। ये एक मुश्किल यात्रा होती है, जिसे पूरा करने में कभी-कभी एक महीने या उससे ज्यादा का भी वक्त लग जाता है।
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