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प्रारंभिक कुछ मन्वन्तरों के बाद चाक्षुष मन्वन्तर आने पर भगवान विष्णु को ऐसा औषधरत्न प्रकट करना पड़ा जो न ब्रह्मा के पास था, न उनके शिष्य दक्ष प्रजापति के पास, न उनके शिष्य इंद्र के पास और न चमत्कारी देववैद्य अश्विनीकुमारों के पास ही था ।
घटना इस प्रकार की है - छठे मनु का नाम था चाक्षुक । उन दिनों दुर्वासा के शाप से देवराज इंद्र के साथ - साथ सारे देवता भी श्रीहीन हो गए थे । दैत्यों ने देवताओं को भगवाकर दर - दर का भिखारी बना दिया था । निराश होने पर सब देवता मिलकर अपने पितामह ब्रह्मा के पास पहुंचे । ब्रह्मा जी ने जब देखा कि इंद्र, वायु आदि सभी देवता अत्यंत श्रीहीन और शक्तिहीन हो गए हैं तथा ये विकट परिस्थिति में पड़ गए हैं, तब वे भी चिंतित हो गए ।
उन्होंने भगवान का स्मरण किया । इस स्मरण से उन्हें बल मिला । शंकर आदि सभी देवताओं को साथ लेकर वे भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में गए । किंतु उन्हें वहां कुछ दिखायी न पड़ा । दर्शन के लिए ब्रह्मा जी ने लंबा स्तुति की । इससे भगवान उनके बीच प्रकट हो गए । किंतु भगवान की इस छवि को केवल भगवान शंकर और ब्रह्मा जी ही देख सके । ब्रह्मा और देवताओं ने अपनी दु:खद परिस्थिति उनके सामने रख दी । भगवान ने देवताओं को राय दी कि स्थिर लाभ के लिए तुम लोग दैत्यों से संधि कर लो ताकि समुद्र मथा जा सके । उस मंथन से हमें अमृत रूप औषध निकालना है ।
यह कार्य अकेले तुम लोगों से नहीं हो सकेगा, उस दिव्य रस के उपयोग से तुम भी बल - वीर्य से संपन्न हो जाओगे और मर कर भी फिर जी उठोगे । तब दैत्य स्वयं तुम पर आक्रमण करने से कतराने लगेंगे । इसलिए तुम लोग दैत्यों के साथ संपूर्ण औषधियां लाकर अमृत के लिए क्षीरसागर में डालो । इस मंथन से औषधियों का सारभूत अमृत आदि लोकोपकारक वस्तुएं निकल सकेंगी । इस मंथन में मंदराचल को मथानी बनाया जाएगा और वासुकि नाग को नेति । देवताओं और दानवों ने नाना प्रकार की औषधियां लाकर क्षीर सागर में डालीं और मंथन प्रारंभ हुआ ।
उस अमृत रूप औषधतत्त्व को प्राप्त करना इतना कठिन था कि केवल इतने ही साधनों से वह उपलब्ध नहीं हो सका । इसलिए भगवान ने स्वयं कूर्मरूप धारण करके मंदराचल के आधारभूत और अदृश्यरूप से एक अन्य विशाल रूप धारण कर उस पर्वत को ऊपर से दबा रखा था । भगवान ने देखा कि केवल देवताओं और असुरों की शक्ति से अमृत का निकलना कठिन है तो स्वयं दैत्य का रूप बनाकर दैत्यों के दल में और देवता का रूप बनाकर देवताओं के दल में जाकर मंथन - क्रिया को संपन्न कराया ।
औषधियों के मंथन से जो रस तैयार होगा , उस अनुपात के संतुलित मिश्रण के लिए अपने अंशांश से धन्वंतरि के रूप में अवतीर्ण होकर समुद्र में अदृष्ट - रूप से वे प्रवीष्ट हो गए । वहां उन्होंने औषधियों में रस का उचित अनुपात में मिश्रण कर उसे अमृत का रूप प्रदान किया । उस सम्मिश्रण में वे इतने दत्तचित्त हुए कि जब अमृतमय कलश लेकर बाहर प्रकट हुए तो उनके मुख से भगवान विष्णु के नामों जप और आरोग्य के साधक औषधों के नाम का भी उच्चारण हो रहा था । इतनी तन्मयता से धन्वंतरि ने उस दिव्य औषध को निकाला ।
किंतु दैत्य तो दैत्य ही होते हैं । उन्होंने अमृत के उस कलश को हथिया लिया । देवता विषाद से भर गए और और फिर उन्होंने भगवान की शरण ली । फिर भगवान ने अपनी माया से दैत्यों को मोहित कर देवताओं को अमृत पिला दिया और स्वयं वैकुण्ठधाम चले गए । इस प्रकार देवताओं के सबल हो जाने पर सूर्य - ग्रह - नक्षत्रादि आकाश के गोलकों ने अपनी गति में नियमितता पा ली । संसार फिर सुखी - सम्पन्न होकर उल्लास से भर गया ।
औषध का प्रयोग फिर जनता के महान पालक अश्विनीकुमारों के हाथ में आ गया । बहुत काल बाद मनुष्य लोक में जब रोगों ने अपने पांव फैलाए और पृथ्वी के प्राणी फिर दीन - दु:खी होने लगे, तब भगवान नारायण श्रीविष्णु ने अंशाशरूप में जो अपना अवतार धन्वंतरि रूप में लिया था, उस धन्वंतरि रूप से राजा धन्व के यहां पुत्ररूप में आविर्भूत हुए, क्योंकि राजा धन्वने इन्हीं अब्ज धन्वंतरि को पुत्र रूप से पाने के लिए तप किया था । गर्भावस्था में ही इन्हें अमिमा आदि सिद्धियां प्राप्त हो गयी थीं । विष्णु के अंशांशरूप में अवतीर्ण भगवान धन्वंतरि ने आयुर्वेद को आठ अंगों में बांट दिया । वे आठ अंग इस प्रकार हैं - कायचिकित्या, बालचिकित्सा, ग्रहचिकित्सा, ऊर्ध्वाङ्गचिकित्सा, शल्यचिकित्सा,दंष्ट्रचिकित्सा, जराचिकित्सा तथा वृषचिकित्सा ।