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सालभर में आने वाली किसी भी एकादशी पर चावल खाने की मनाही होती है, इसके पीछे धार्मिक कारण है, कि एकादशी के दिन चावल खाने से पुण्य फल की प्राप्ति नहीं होती है। चावल को हविष्य अन्न (देवताओं का भोजन) कहा जाता है। देवी-देवताओं के सम्मान में हर एकादशी तिथि पर चावल का सेवन करना वर्जित माना जाता है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार महर्षि मेधा माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए एकादशी के ही दिन अपने शरीर का त्याग कर दिया था। महर्षि का जन्म चावल और जौ के रूप में हुआ था इसलिए इस दिन लोग चावल नहीं खाते हैं।वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करें तो चावल में जल तत्व की प्रधानता होती है। इस दिन पका हुआ चावल खाने से मन और भी चंचल हो जाता है जबकि मन की चंचलता को दूर करने के लिए एकादशी का व्रत रखा जाता है।
वैसे तो सभी मंदिरों और घरों में एकादशी के दिन चावल बनाना या खाना वर्जित माना जाता है। लेकिन जगन्नाथ पुरी में एकादशी के दिन भी चावल खाने की विशेष परंपरा है। इसके पीछे पौराणिक कथा आती है कि एक बार ब्रह्म देव स्वयं जगन्नाथ पुरी भगवान जगन्नाथ का महा प्रसाद खाने की इच्छा से पहुंचे लेकिन तब तक महाप्रसाद समाप्त हो चुका था। एक पत्तल में चावल के थोड़े से दाने थे जिसे एक श्वान खा रहा था। हर प्राणी में भगवान के भक्ति भाव में डूबे ब्रह्म देव ने श्वान के साथ बैठकर उन चावलों को खाना शुरू कर दिया। जिस दिन यह घटना घटित हुई उस दिन संयोग से एकादशी थी। ब्रह्म देव को श्वान के साथ उनके महाप्रसाद का चावल खाते देख भगवान जगन्नाथ प्रकट हुए और बोले कि आज से मेरे महाप्रसाद में एकादशी का कोई नियम लागू नहीं होगा। बस उसी दिन से जगन्नाथ पुरी में एकादशी हो या कोई अन्य तिथि भगवान जगन्नाथ के महाप्रसाद पर किसी भी व्रत या तिथि का प्रभाव नहीं पड़ता।
कुछ लोग ये कहते हैं कि जगन्नाथ मंदिर में एकादशी उल्टी लटकी हुईं हैं लेकिन मलूक पीठ वाले परम पूज्य राजेंद्र दास देवाचार्य जी महाराज के मुताबिक इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता। बल्कि जगन्नाथ मंदिर में एकादशी माता का मंदिर है जहां वो बैठकर हाथ जोड़कर प्रभु की भक्ति कर रही हैं।