कहते हैं कि जब महाभारत लिखा जा चुका तो महर्षि वेदव्यास उसके श्रम से थककर चूर हो गए थे. यद्यपि इस विराट ग्रंथ के लेखक के लिए गणेश को लिपिकार के तौर पर चुना गया था. चारों वेदों के विभाग और संपादन के कारण उनका नाम वेद व्यास पड़ा था, लेकिन उनकी ख्याति महाभारत को लेकर ज्यादा थी.
यही नहीं उस समय की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं के साक्षी भी थे. महाभारत की रचना से कई महत्वपूर्ण बातें जुड़ी हुई हैं. जैसे कि एक तो यही कि महाभारत मे वेदव्यास ने सृष्टि के आरंभ से लेकर कलयुग तक का वर्णन किया. उन्होंने कहा कि इस ग्रंथ में जो कुछ है, वह अन्यंत्र है, लेकिन जो इसमें नहीं है, वह अन्यंत्र कहीं भी नहीं है.
महाभारत लिख कर वह एक महायुद्ध का वर्णन नहीं करना चाहते थे, बल्कि जीवन के मू्ल्यों को स्थापित करना चाहते थे. अपने आप में एक विचित्र बात यह है कि एक लाख श्लोकों में धर्म, अध्यात्म, समाज, राजनीति, कला व साहित्य आदि विषयों का एक संपूर्ण महाकाव्य तैयार कर लेने पर भी वेद व्यास खुश नहीं थे.
उन्हें कथा में कोई कमी खल रही थी. एक दिन वे उदास बैठे थे और उधर से नारदजी गुजर रहे थे. नारदजी ने उन्हें उदास देखकर बोले आपकी कथा संसार पर आधारित है. इसलिए इसकी रचना के बाद आप दुखी हैं. आप ऐसा ग्रंथ रचें जिसके जिसके केंद्र में भगवान हों. इसके बाद ही वेद व्यास ने श्रीमद् भागवत महापुराण की रचना की.
वेदव्यास जी ने योग, वेदांत, व्याकरण और साहित्य में भी लेखनी चलाई. ये त्रिकालज्ञ माने जाते हैं. उन्होंने दिव्य दृष्टि से जान लिया था कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जाएगा. लोग नास्तिक होने लगेंगे. वेदों का समग्र रुप से पढ़ना उनके लिए कठिन हो जाएगा. वो इसके लिए समय नहीं निकाल पाएंगे. न ही उन्हें पढ़ना चाहेंगे. इसलिए उन्होंने वेदों को चार भागों में बांटा. उनका नाम रखा गया - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद.
महाभारत लिखकर वेदव्यास भले ही खिन्न हुए हो लेकिन धर्म का सारतत्व उन्होंने इसी ग्रंथ में निरुपित किया. बीजमंत्र या गणित के सूत्रों की तरह महाभारत का तत्वदर्शन समझाने के लिए उन्होंने महाकाव्य के अंत में दो श्लोक लिखे. उनका सार यह कि मैं हाथ उठा उठा कर कहता हूं. पर मेरी बात कोई नहीं सुनना चाहता.
इसका अर्थ यह ह कि धर्म से ही अर्थ और काम की सिद्धि होती है. फिर भी लोग उसका सेवन की सिद्धि होती है, फिर भी लोग उसका सेवन क्यो नहीं करते. अर्थात जिन्हें अपने कल्याण की कामना है, उन्हें भय या लोभ के कारण अपने धर्म की तिलांजलि नहीं देचा चाहिए.
महाभारत में ही वेदव्यास ने यह भी कहा कि समूचा धर्म एख श्लोक में ही लिखा जा सकता है. उसके अनुसार दूसरों की सेवा करना ही धर्म है और किसी को भी पीड़ित करना पाप (अधर्म). व्यावहार का मर्म समझाते हुए उन्होंने कहा कि जो हमें पसंद नहीं है. वह व्यवहार दूसरो के साथ नहीं करना चाहिए.