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श्रीराम और महादेव एक दूसरे के पूरक क्यों हैं ?

शिव आदि हैं, अनंत हैं । ना प्रकाश है और ना ही अंधकार। यूँ कहें कि शिव ही समस्त ब्रहमाण्ड हैं, देवों के देव हैं महादेव । गौरीशंकर कहे जाने वाले कैलाशपति भोलेनाथ समाधिस्थ होकर अपने आराध्य के ध्यान में लीन रहते हैं और निरंतर राम नाम का सुमिरन करते रहते हैं । उन्हीं के गुण गाते हैं।

 

एक समय देवी सती बोलीं, हे नीलकंठ योगेश्वर आप किनकी पूजा करते, कौन हैं वो परमेश्वर ?

 

तो भोले नाथ बोले । हे देवी ! राम का नाम अपने आप में ही समस्त पापों का नाश करने वाला है, इस अखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म रूपी राम कण-कण में समाए हैं। शंकर जी देवी सती को यह समझा ही रहे थे कि वो बोलीं – “हे नाथ, जो स्वयं नारायण स्वरुप हैं वह मृत्युलोक में क्यों विचरण करते हैं ? मैं श्रीराम की परीक्षा लेना चाहती हूँ। अगर वह परमेश्वर हैं तो सब जानते ही होंगे।“ इतना कह कर भोलनाथ के चरणों में प्रणाम कर सती जी देवी सीता का रूप रख कर श्रीराम के सन्मुख खड़ी हो गईं । जगत के पालनकर्ता प्रभु राम बोले – “हे सम्पूर्ण जगत की माता, अपने पुत्र राम का प्रणाम स्वीकार करें। इसीलिए कहा गया है -

 

देवी सती जब सीता बन कर श्रीराम के सन्मुख आई

राम ने उनको माता कह कर शिवशंकर की महिमा गाई

 

देवी सती का भ्रम दूर हुआ और कैलाश वापिस आ गईं और सारी कहानी महादेव को कह सुनाई। वो बोले – “हे देवी, मेरे आराध्य ने आपको माता कह कर सम्बोधित किया है अर्थात जो उनकी माता है वह मेरी भी माता तुल्य ही हैं । इसलिए आज से आप मेरी वामांगी नहीं रहीं।“ देवी सती समझ गईं कि चराचर जगत के स्वामी श्रीराम पर संदेह करने का ही ये फल पाया है । इसलिए वो अपनी देहत्याग कर पुनः पार्वती के रूप में जन्म लेती हैं और कई परीक्षाएं देकर महादेव को पुनः प्राप्त करती हैं। एक बार भ्रमवश श्रीराम की परीक्षा लेने से उन्होंने ना जाने कितने कष्ट उठाए। इसीलिए, कहा गया है- राम से बड़ा राम नाम। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि भगवान शिव ही भगवती पार्वती को रामकथा सुना रहे हैं और कहते हैं कि....

 

उमा कहूं मैं अनुभव अपना

सत हरि भजन जगत सब सपना

 

(अर्थात- केवल हरि का निरंतर स्मरण ही एक मात्र सत्य है, बाकी सब इस जगत में स्वप्न मात्र है।)

 

रामचरितमानस यूं तो श्रीराम की जीवनगाथा है जिसके बालकाण्ड में शिव-पार्वती जी के विवाह की कथा कही गई है। इसमें प्रभु राम ही महादेव को देवी पार्वती से विवाह के लिए आग्रह करते हैं और महादेव श्रीराम से कहते हैं कि …

 

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी

 

(अर्थात - माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर माथे पर है।)

 

महादेव द्वारा ऐसे वचन कहने और प्रभु राम द्वारा शिव की महिमा कहना एक दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान का प्रतीक है। दोनों एक-दूसरे को अपना इष्ट और आराध्य मानते हैं और एक-दूसरे का नाम जपते हैं। इसी तरह बारह ज्योतिर्लिंगों में श्रीरामेश्वरम का वर्णन शिवमहापुराण की कोटि रुद्रसंहिता में मिलता है कि जब श्रीराम, सीताजी को ढूंढ़ने और रावण से युद्ध के लिए वानर सेना सहित समुद्र तट पर आए तब प्रभु राम के पीने के लिए वानर मीठा जल लाए तो श्रीराम को स्मरण हुआ कि मैंने अपने स्वामी भगवान शंकर का दर्शन तो आज किया ही नहीं। फिर जल कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ? इतना कह कर रघुनन्दन ने पार्थिव शिवलिंग का निर्माण कर कई प्रकार के फूलों से पूजन किया । पूजन से प्रसन्न हो भगवान शिव, देवी पार्वती सहित तत्काल वहां प्रकट हुए और बोले- “हे श्रीराम ! तुम्हारा कल्याण हो, विजयी भवः।“ तभी तो कहा गया है कि…

 

पूजन रामचन्द्र जब कीन्हा, जीत के लंक विभीषण दीन्हा

सहस कमल में हो रहे धारी, कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी

 

अर्थात - लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व श्रीराम ने आपकी पूजा के बाद ही विजय प्राप्त की और विभीषण को लंका का राजा बना दिया। हे महादेव ! जब श्री रामचन्द्रजी सहस्त्र कमलों से आपकी पूजा कर रहे थे तब आपने फूलों में रहकर उनकी परीक्षा ली। 

 

जिस शून्य से विज्ञान नए-नए शोध करता है वही शून्य शिव हैं और उन्ही के ह्रदय में विराजमान हैं प्रभु राम । उसी प्रकार श्री रामचंद्र जी के कमल रूपी ह्रदय में भगवान शिव वास करते हैं। दोनों के ही बिना एक दूसरे की कल्पना अधूरी है। ऐसे परम कृपालु महादेव संग प्रभु राम के श्री चरणों में कोटिश: प्रणाम।

 

:- रजत द्विवेदी