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माता सीता की दिव्य चूड़ामणि का रहस्य

रामायण का अद्भुत प्रसंग

रामायण एक ऐसा ग्रन्थ है जिस का पाठ करने से घर परिवार में तो खुशहाली रहती ही है साथ ही हम जितने भाव से इसको पढ़ते हैं हर बार कुछ ना कुछ नया जरूर सीखते हैं। ऐसा ही एक रोचक प्रसंग है माता सीता की चूड़ामणि का जो स्त्री के केशों को बांधने वाला एक सूंदर आभूषण है।

जब माता सीता विवाह करके अयोध्या आईँ तो उनकी मुंह दिखाई की रस्म शुरू की गई। सीता जी को मुंह दिखाई में उनकी सबसे छोटी सास कैकई ने अपना निजी भवन और अयोध्या का सबसे सुंदर रत्न जड़ित ‘कनक भवन’ उपहार में दिया। वहीं मंझली सास सुमित्रा ने अपने जूड़े से चूड़ामणि निकाल कर सीता जी के जूड़े में लगा दी थी। वहां उपस्थित लोगों को आश्चर्य हुआ कि रानी कैकई ने तो मुंह दिखाई में भव्य कनक भवन ही दे दिया जबकि रानी सुमित्रा ने केवल अपने जूड़े से निकाल कर सात मणियों वाली ये छोटी सी चूड़ामणि ही उपहार में दी ।

यह बात वहां उपस्थित कुलगुरू महर्षि वशिष्ठ भांप गए और उन्होंने चूड़ामणि की महिमा बताते हुए कहा कि “चूड़ामणि की समानता केवल श्रीनारायण के हृदय पर शोभायमान कोसतुभमणि ही कर सकती है। संसार के समस्त आभूषण मिलकर भी इसकी समानता नहीं कर सकते। यह कहां से आई, इसके बारे में मैं तुम्हें बताता हूं।“

समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्न

देवताओं और दानवों द्वारा अमृत प्राप्त करने के लिए किए गए मंथन समुद्र में 14 रत्न निकले थे –

महालक्ष्मी, कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष, वारुणी, धन्वंतरी, चंद्रमा, कामधेनु गाय, ऐरावत हाथी, अप्सरा, कालकूट विश्व, उच्चैश्रवा घोड़ा, उपजन्य शंख, पारिजात वृक्ष और अमृत कलश

जाहिर है यह कौस्तुभ मणि उसी समुद्र मंथन से निकला था जो उसकी दिव्यता का परिचायक है ।

दिव्य कौस्तुभ चूड़ामणि की कथा

समुद्र मंथन से देवी महालक्ष्मी के प्राकट्य से पहले उन्हीं के समान रूप रंग वाली और समुद्र की कन्या अपूर्व सुंदरी ‘रत्नाकर नंदिनी’ प्रकट हुईं। भगवान श्री हरि को देखते ही वह अपना हृदय उन्हें समर्पित कर बैठीं और प्रभु को एकटक निहारती रही । तभी भगवान श्रीहरि की शक्ति साक्षात् देवी महालक्ष्मी का समुद्र मंथन से प्राकट्य हुआ । अत्यंत सुंदर देवी लक्ष्मी के प्रकट होते ही चहुँदिशाओं में हर्ष की लहर दौड़ पड़ी । उन्होंने अपने कोमल हाथों में सुशोभित सफेद, लाल, नीले, पीले और गुलाबी रंगों की कमल माला भगवान श्रीहरि विष्णु को पहना दी और फिर उनके अनुग्रह की प्रतीक्षा करती हुईं उनके निकट स्थिर हो गईं। जबकि समुद्र की सबसे बड़ी पुत्री रत्नाकर नंदनी मन मसोसकर खड़ी रहीं। उनके मन के भाव जानकर श्रीहरि विष्णु स्वयं उनके पास जाकर बोले – “मैं तुम्हारे मन के भाव जानता हूँ। पृथ्वी का भार हरने के लिए मैं जब-जब अवतार धारण करूंगा तब तुम मेरी संहारिणी शक्ति के रूप में अवतरित होगी। कलयुग के अंत में जब मैं कल्कि रूप में अवतरित होऊंगा, तब तुम्हें अंगीकार करूंगा। अभी सतयुग है, त्रेता और द्वापर युग में तुम त्रिकूट पर्वत श्रृंखला पर वैष्णवी नाम से अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए तप करो । त्रेतायुग से तुम त्रिकुटा के नाम से जानी जाओगी । मैं तुम्हें राम अवतार के रूप में दर्शन दूंगा और तुम त्रिकूट पर्वत पर धर्म की ज्योत प्रज्वलित कर तीन महाशक्तियों की शक्ति बन वैष्णों देवी के नाम से विख्यात होगी और सबकी मनोकामनाएं पूर्ण करोगी। तब रत्नाकर नंदिनी ने अपने पिता द्वारा दी गई और स्वयं विश्वकर्मा जी द्वारा बनाई गई रत्न जड़ित चूड़ामणि श्रीहरि को प्रेम स्वरूप भेंट कर दी। देवराज इंद्र पास में खड़े हुए दिव्य चूड़ामणि को ललचाई नजरों से देख रहे थे । तभी दीनदयाल भगवान श्रीहरि ने उसे इंद्र को दे दिया और इंद्र ने वह चूड़ामणि इंद्राणी के केशों में सजा दी।

इन्द्राणी ने महारानी कैकई को सौंपी थी चूड़ामणि

कुछ समय पश्चात स्वर्ग लोक पर शंबरासुर नामक दानव ने आक्रमण कर दिया और देवराज इंद्र बहुत पीड़ित रहने लगे । उन्होंने अयोध्या के राजा दशरथ से सहायता मांगी और शंबरासुर का अंत करने के लिए विनती की । राजा दशरथ शंबरासुर के अंत का वचन इंद्र को दे दिया । चूंकि महारानी कैकई ने अपने पिता के यहां शस्त्र चलाना सीखा था और रथ हांकने में भी पारंगत थीं इसलिए उनकी सहायता से महाराज दशरथ ने शंबरासुर को युद्ध में पराजित कर दिया। अपनी विजय और महारानी कैकेई की वीरता से प्रसन्न होकर उन्होंने उन्से दो वरदान मांगने को कहा। कैकई कहती हैं कि अभी तो प्रभु कृपा से सब कुछ है। जब मुझे आवश्यकता होगी तब मांग लूंगी।

देवराज इंद्र शंबरासुर की मृत्यु के पश्चात महाराज दशरथ और महारानी कैकई को प्रसन्नता पूर्वक स्वर्गलोक में अभिनंदन के लिए आमंत्रित करते हैं। इस अवसर पर इंद्र ने राजा दशरथ को स्वर्गलोक की मंदाकिनी के राजहंस और चार पंख दिए साथ ही इन्द्राणी ने महारानी कैकई को चूड़ामणि भेंट देते हुए कहा – “ मैं त्रिदेव और जगदम्बा भवानी को साक्षी मान कर कहती हूँ जिस स्त्री के केशों में यह दिव्य चूड़ामणि रहेगी उसका सौभाग्य अखंड रहेगा । उसके पति के राज्य में सूखा, अकाल जैसी विपदा कभी नहीं आएगी और जिसके पास यह चूड़ामणि रहेगी उसे कोई शत्रु पराजित नहीं कर सकेगा। महारानी कैकई ने वह चूड़ामणि यह सोचकर सुमित्रा को दे दी कि मुझे तो महाराज दशरथ और प्रजा का प्रेम और आदर वैसे ही सबसे ज्यादा मिल रहा है तो क्यों न इसे मंझली रानी सुमित्रा को दे दूं जो दिन-रात परिवार की सुख-सुविधा में लगी रहती हैं। इस प्रकार चूड़ामणि सुमित्रा के पास आ गई ।

रानी सुमित्रा ने वधू के जूड़े में सजाई चूड़ामणि

प्रभु श्रीराम के विवाह के बाद जब सीता जी की मुंह दिखाई की रस्म शुरू हुई तब कृपा की मूर्ति महारानी सुमित्रा ने घूंघट की ओट से जनक दुलारी का मुंह देखा तो बस जैसे उन्हें देखती ही रह गईं । साक्षात वात्सल्य और करुणा की देवी महालक्ष्मी के स्वरूप में देवी सीता विद्यमान थीं। वधू को सौभाग्य का आशीर्वाद देते हुए उन्होंने अपने हाथों से वह चूड़ामणि सीता जी के जूड़े में सजा दी।

लंका से प्रभु राम तक हनुमान लाये थे चूड़ामणि

भगवान राम के वनवास जाते समय मां जानकी ने भी भगवा वस्त्र धारण किया परंतु कुछ आभूषणों का त्याग नहीं किया। रावण द्वारा हरण किए जाने पर वह पुष्पक विमान से अपने आभूषण जगह-जगह डालती रहीं। लंका पहुंचने तक केवल चूड़ामणि ही उनके पास शेष रही थी। चूड़ामणि की महिमा जानने के कारण ही उन्होंने उसे अपने शरीर से अलग नहीं किया था। सीता जी की खोज में जब हनुमान जी अशोक वाटिका में जाकर श्री राम की मुद्रिका मां जानकी को देते हैं और कहते हैं - 

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा, जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥ चूड़ामणि उतारि तब दयऊ, हरष समेत पवनसुत लयऊ॥

तब वही चूड़ामणि मां जानकी ने प्रभु श्री राम को अपनी पहचान बताने के लिए हनुमान जी को दे दी थी। सीता जी जानती थीं, कि जब तक यह चूड़ामणि प्रभु श्री राम के पास नहीं पहुंचेगी तब तक लंका का विनाश और रावण की पराजय दोनों में से कुछ भी संभव नहीं है।

रमन शर्मा