हनुमान जी के अवतरण की अद्भुत पौराणिक कथा, श्रवण से मिलेगा अनन्य पुण्य
हनुमान जी महाराज भगवान भोलेनाथ के 11वें रुद्र अवतार हैं । इसका उल्लेख धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। शिव पुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। भगवान शिव ने हनुमान जी का अवतार क्यों लिया ? इस रहस्य के पीछे भगवान की क्या लीला थी? इस बात को जानने के लिए हम संबंधित पौराणिक कथाओं का संदर्भ लेते हैं।
पुंजिकस्थला को ऋषि से श्राप मिला
माता अंजनि पूर्व जन्म में देवराज इंद्र के दरबार में अप्सरा पुंजिकस्थला थीं जो भगवान शिव की भक्त भी थीं। पुंजिकस्थला नृत्य कला में निपुण अत्यंत सुंदर और स्वभाव से चंचल थीं। एक बार की बात है कि अपनी किशोरावस्था में चंचलतावश पुंजिकस्थला तपस्या कर रहे वानर रूप में एक तेजस्वी ऋषि का भूलवश अपमान कर बैठीं । गुस्से में आकर ऋषि ने श्राप दे दिया कि ‘जा….तू वानर की तरह स्वभाव वाली वानरी बन जा’ । ऋषि के श्राप को सुनकर पुंजिकस्थला उनसे क्षमा याचना करने लगी । तब ऋषि ने दया दिखाई और कहा कि तुम्हारा वह रूप भी परम तेजस्वी होगा। तुमसे एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा जिसकी कीर्ति और यश से तुम्हारा नाम युगों-युगों तक अमर हो जाएगा । इस तरह अंजनि को वीर पुत्र प्राप्त होने का आशीर्वाद मिला। ऋषि के कहे अनुसार त्रेता युग में देवी अंजनि को नारी वानर के रूप में धरती पर जन्म लेना पड़ा। अप्सरा पुंजिकस्थला यानि अंजनि इंद्र की हजारों सुंदर अप्सराओं में से एक थीं। अंजनि यानी इंद्र ने जब उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा- तब उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा कि ‘उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें।‘ इंद्र ने कहा ‘वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिलवा दें।
वानर रूपी तपस्वी साधु का श्राप
पुंजिकस्थला ने बताया कि किशोरावस्था में जब खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा। मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए। बस, यही मेरी गलती थी क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे। मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा तो मैं वानर बन जाऊंगी। मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा'। अपनी कहानी सुनाने के बाद पुंजिकस्थला ने कहा कि अगर आप (इंद्र देव) इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें तो बहुत आभारी होंगी। इंद्र देव ने कहा कि ‘इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए तुम्हें धरती पर जाकर निवास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी। शिव के अवतार को जन्म देने के बाद तुम्हें इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी।
त्रेता युग में धरती पर आईं अंजनि
इंद्र की बात मानकर पुंजिकस्थला ने अपना अप्सरा स्वरुप को त्याग दिया और चंदन, कुमकुम से सज-सँवर कर अंजनि के रूप में धरती पर चली आई । उसे मिले श्राप का प्रभाव शिव के अंश को जन्म देने के बाद ही समाप्त होना था। वह एक शिकारी स्त्री के तौर पर जीवनयापन करने लगी। जंगल में उन्होंने एक बड़े बलशाली युवक को भयंकर शेर से लड़ते देखा तो उनके पराक्रम और पौरुष से प्रभावित होकर उसके प्रति आकर्षित होने लगीं। जैसे ही उस व्यक्ति की नजरें अंजनि पर पड़ीं, श्राप के प्रभाव से अंजनि का चेहरा वानर जैसा हो गया। अंजनि जोर-जोर से रोने लगीं । जब वह युवक उनके पास आया और उनकी पीड़ा का कारण पूछा तो अंजनि ने अपना चेहरा छिपाते हुए उसे बताया कि वह वानरी हो गई हैं। अंजनि ने उस बलशाली युवक को दूर से देखा था लेकिन जब उसने उस व्यक्ति को अपने समीप देखा तो पाया कि उसका चेहरा भी वानर जैसा था।
माता अंजनी और वानरराज केसरी का विवाह
अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहे इंसानी रूप में आ सकते हैं। अंजनि का वानर जैसा चेहरा देख केसरी ने उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे अंजना (अंजनि) ने स्वीकार कर लिया। विवाह के 5 वर्ष बाद भी दोनो संतान सुख से वंचित थे। अंजना अपनी इस पीड़ा को लेकर मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-‘पंपा सरोवर के पूर्व में नरसिंह आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है, वहां जाकर स्नान करके और बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करने पर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी। अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया और 12 वर्ष तक केवल वायु पर ही जीवित रही । एक बार अंजना ने "शुचिस्नान" करके सुंदर वस्त्राभूषण धारण किए। तब पवन देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उसके कान में प्रवेश कर वरदान दिया कि तुम्हारे यहां सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, महाबली पुत्र होगा। तुम सिर्फ महादेव का ध्यान करो और ‘नमः शिवाय’ मंत्र का उच्चारण करो। उन्होंने ऐसा ही किया और तब प्रसन्न होकर भगवान शिव ने प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा । अंजना ने शिवजी से कहा कि ‘साधु के श्राप से मुक्ति पाने और आपके ही समान तेजस्वी पुत्र की अभिलाषा है।‘ शंकर जी ‘तथास्तु’ कह कर अंतर्ध्यान हो गए। इस तरह शंकर जी बालक के रूप में अंजनी के घर अपना 11वां रूद्र अवतार लेते है। इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव जी की आराधना कर रही थीं और दूसरी तरफ अयोध्या में महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी के साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए, श्रृंगी ऋषि को बुलाकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' यज्ञ कर रहे थे।
ऐसे अवतरित हुए हनुमान जी महाराज
यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी ऋषि को खीर का एक स्वर्ण पात्र (कटोरी) दिया और कहा "ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दें। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।" इसे तीनों रानियों को खिलाया जाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस खीर की कटोरी में से थोड़ी सी खीर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया। अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया। तभी शंकर जी ने भी अपनी लीला को रचा। भगवान शंकर का तेज, पवन देव माता अंजनी के कान द्वारा उनके गर्भ में प्रविष्ट कर देते हैं और माता अंजनी कुछ ही क्षण में गर्भवती हो जाती हैं । उस दिन चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि थी। तब हनुमान जी (वानर मुख वाले हनुमान जी) का जन्म त्रेता युग में अंजना के पुत्र के रूप में, महानिशा काल में होता है और अंजनि का वानर मुख एक अत्यंत सुंदर स्त्री के रूप में परिवर्तित हो जाता है। माता अंजनि उस बालक का नाम ‘मारुति’ रखती हैं। अंजनि के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को ‘आंजनेय’ नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न'। उनका एक नाम पवन पुत्र भी है, जिसका शास्त्रों में सबसे ज्यादा उल्लेख मिलता है। शास्त्रों में हनुमानजी को वातात्मज भी कहा गया है यानि जो वायु से उत्पन्न हुआ हो। बाल्यकाल में मारुति ने कई लीलाएं कीं और एक लीला के कारण उनका नाम हनुमान पड़ा जो संसार में सबसे ज्यादा प्रचलित हुआ। इस तरह माता अंजनि ने सिर्फ बजरंगबली को जन्म देने के लिए ही पृथ्वी पर अवतरण लिया था।