माता वैभव लक्ष्मी की कथा शीला और उसके पति से जुड़ी है। शीला और उसका पति ईमानदारी से जीते थे। वे किसी की बुराई नहीं करते थे. सिर्फ प्रभु भजन में समय व्यतीत करते थे। शहर के लोग उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे। शीला की गृहस्थी इसी तरह खुशी-खुशी चल रही थी लेकिन शीला के पति के पिछले जन्मों के कर्म को भोगना अभी बाकी था ऐसे में वह बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठा था। वह जल्द से जल्द ‘करोड़पति’ होने के ख्वाब देखने लगा। इसलिए वह गलत रास्ते पर चल पड़ा और उसकी हालत रास्ते पर भटकने वाले भिखारी के जैसी
गई.
शहर में शराब, जुआ, रेस, चरस, गंजा वगैरह बादियां फैली हुई थीं। उसमें शीला का पति भी फंस गया। दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई। जल्द से जल्द पैसे वाला बनने की लालच में दोस्तों के साथ जुआ भी खेलने लगा। इस तरह बचाई हुई धनराशि, पत्नी के गहने, सब कुछ रेस-जुए में गंवा दिया।
इसी तरह एक वक्त ऐसा भी था कि वह शीला के साथ सुखी से रहता था और प्रभु भजन में सुख-शांति से वक्त व्यतीत करता था लेकिन अब घर में दरिद्रता और भूखमरी फैल गई। सुख से खाने की बजाय दो वक्त के भोजन के लाले पड़ गये और शीला को पति की गालियां पड़ने लगी।
शीला एक संरकारी स्त्री थी। उसको पति के बर्ताव से बहुत दुःख हुआ। किन्तु वह भगवान पर भरोसा करती थी। कहा जाता है कि ‘सुख के पीछे दुःख और दुःख के पीछे सुख’ आता ही है। इसलिये दुःख के बाद सुख आयेगा ही, ऐसी श्रद्धा के साथ शीला प्रभु भक्ति में लीन रहने लगी।
इस तरह शीला असहय दुःख सहते-सहते प्रभुभक्ति में वक्त बिताने लगी। अचानक एक दिन दोपहर को उसके द्वार पर किसी ने दस्तक दी। शीला सोच में पड़ी गई कि मुझ जैसे गरीब के घर इस वक्त कौन आया होगा? फिर भी द्वार पर आये हुए अतिथि का आदर नहीं करना चाहिये। शीला ने द्वार खोला।
देखा तो सामने एक बुजुर्ग स्त्री खड़ी थी। वे बड़ी उम्र की लगती थी। किन्तु उनके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था। उनकी आँखों में माने अमृत था। उनका भव्य चेहरा करूणा और प्यार से छलकता था। उनको देखते ही शीला के मन में अपार शांति छा गई। वैसे शीले बुजुर्ग स्त्री को पहचानती न थी लेकिन फिर भी बुजुर्ग महिला को देखकर शीला के रोम-रोम में आनन्द छा गया। शीला मांजी को आदर के साथ घर में आई। घर में बिठाने के लिये कुछ भी नहीं था। अतः शीला ने सकुचा कर फटी हुई चद्दर पर उनको बिठाया।
मांजी ने कहा: क्यो शीला! मुझे पहचाना नहीं?
शीला ने सकुचा कर कहा मां! आपको देखते ही बहुत खुशी हो रही है। बहुत शांति लग रही है। ऐसा लगता है कि मैं बहुत खुशी हो रही हूं. मुझे ऐसे लग रहा जैसे मैं बहुत दिनों से जिसे ढूंढ रही थी वे आप ही है। पर आपको पहचान नहीं सकती।
मांजी ने कहा कि क्यों मुझे भूल गई? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन कीर्तन होते है, तब मैं भी वहां आती हूं। वहां हर शुक्रवार को हम मिलते हैं।
पति गलत रास्ते पर चढ़ गया तब से शीला बहुत दुःखी हो गई थी और दुःख की मारी वह लक्ष्मी जी के मंदिर में भी नहीं जाती थी। बाहर के लोगों के साथ नजर मिलाते भी उसे शर्म लगती थी। उसने याददास्त पर जोर दिया पर यह मांजी याद नहीं आ रहीं थी।
तभी मांजी ने कहा, ‘तू लक्ष्मीजी के मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी। अभी-अभी तू दिखाई नहीं देती थी, इसलिये मुझे लगा कि तू क्यों नहीं आती है? कहीं बीमार तो नहीं हो गई है? ऐसा सोचकर मैं मिलने चली आई हूं।’
मांजी के अति प्रेम भरे शब्दों से शीला का हृदय पिघल गया। उसकी आंख में आंसू आ गए। मांजी के सामने वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। यह देखकर मांजी शीला के नजदीक सिर की और उसकी सिसकती पीठ पर प्यार भरा हाथ फेर कर सांत्वना देने लगीं।
मांजी ने कहा- सुख और दुःख तो धुप और छांव जैसे होते हैं बेटी। सुख के पीछे दुःख आता है, तो दुःख के पीछे सुख भी आता है। धैर्य रखो बेटी और तुझे क्या परेशानी है? अपने दुःख की बात मुझे सुना। तेरा मन भी हलका हो जायेगा और तेरे दुःख का कोई उपाय भी मिल जायेगा।
मांजी की बात सुनकर शीला के मन को शांति मिली। उसने मांजी को कहा, मां! मेरी गृहस्थी में भरपूर सुख और खुशियां थी। मेरे पति भी सुशील थे। भगवान की कृपा से पैसे की भी कोई कमी न थी। हम शांति से गृहस्थी चलाते ईश्वर-भक्ति में अपना वक्त व्यतीत करते थे। अचानक हमारा भाग्य हमसे रूठ गया। मेरे पति बुरी दोस्ती में फंस गए। बुरी दोस्ती की वज से वे शराब जुआ, रेस, चरस, गांजा आदि खराब आदतों के शिकार हो गये और उन्होने सब कुछ ग
गंवा दिया और हम रास्ते के भिखारी जैसे बन गये।’
यह सुनकर मांजी ने कहा- सुख के पीछे दुःख और दुःख के पीछे सुख आता ही रहता हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि ‘कर्म’ की गति न्यारी होती है।’ हर इन्सान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते है इसलिये तू चिंता मत कर। अब तू कर्म भुगत चुकी है। अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आयेगें। तू तो मां लक्ष्मीजी की भक्त है। मां लक्ष्मीजी तो प्रेम और करूणा की अवतार हैं। वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती है इसलिये तू धैर्य रख के मां लक्ष्मीजी का व्रत कर। इससे सब कुछ ठीक हो जायेगा।
मां लक्ष्मीजी का व्रत करने की बात सुनकर शीला के चेहरे पर चमक आ गई। उसने पूछा ‘मा’! लक्ष्मीजी का व्रत कैसे किया जाता है, आप मुझे समझायएं। मैं यह व्रत अवश्य करूंगी।
मां जी ने कहा, बेटी! मां लक्ष्मीजी का व्रत बहुत सरल है। उसे वरदलक्ष्मी व्रत या वैभवलक्ष्मी व्रत कहा जाता है। मां लक्ष्मी का व्रत करने वाले भक्तों की सभी मनोकामना पूर्ण होती हैं और वह सुख-संपति और यश प्राप्त करता है। ऐसा कहकर मां जी वैभवलक्ष्मी व्रत विधि-विधान से करने लगीं।
पूजा के बाद शीला नें यह प्रसाद पहले पति को खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया। उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं। शीला बहुत प्रसन्न हुई। उसके मन में वैभवलक्ष्मी व्रत के लिये श्रद्धा और बढ़ गई।
शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से 20 शुक्रवार तक वैभवलक्ष्मी व्रत किया। 21वें शुक्रवार को बुजुर्ग महिला के कहे अनुसार उद्यापन करके सात स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की सात पुस्तकें उपहार में दी। फिर बुजुर्ग महिला के धनलक्ष्मी स्वरूप की छवि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगी। हे मां धनलक्ष्मी! मैंने आपका वैभवलक्ष्मी व्रत करने की मन्नत मानी थी वह व्रत आज पूर्ण किया है।
हे मां! मेरी हर विपत्ति दूर करो। हमारा सबका कल्याण करो। जिसे संतान न हो, उसे संतान देना। सौभाग्यवती स्त्रीयों का सौभाग्य अखंड रखना। कुंवारी लड़कियों को मनभावन पति देना। जो आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे उनकी सब विपत्ति दूर करना। सबको सुखी करना। हे मां! आपकी महिमा अपार है।
ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के धनलक्ष्मी स्वरूप की छवि को प्रणाम किया। इस तरह शास्त्रीय विधिपूर्वक शीला ने श्रद्धा से व्रत किया और तुरन्त ही उसे फल मिला। उसका पति गलत रास्ते पर चला गया था, वह अच्छा आदमी हो गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा। मां वैभव लक्ष्मी की कृपा से शीला के घर में धन की बाढ़ आ गई। वैभवलक्ष्मी व्रत का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियां भी विधिपर्वूक वैभवलक्ष्मी व्रत करने लगीं।