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भगवान शिव की अलौकिक कथाएं और हिमालय के इतिहास को दर्शाता है केदारनाथ

केदारनाथ मंदिर में शिव अन्य ज्योतिर्लिंगों की भांति लिङ्ग रूप में नहीं विराजे हैं बल्कि अपने प्रिय हिमालय के शिखर-सा ही नैसर्गिक और परम् निराकार रूप धरा है। न परम्परागत जलाधारी है न पारम्परिक पिण्ड। मानो हिमांचल में बसने से पहले भगवान ने ही अपने स्वरूप की समस्त लौकिक मान्यताओं का विर्सजन कर विशुद्ध प्रकृत भाव और भूषा में अभिव्यक्त होने का निश्चय किया हो। यही कारण है कि शेष शिवालयों में जहां शिवजी के ‘दर्शन’ होते हैं, वहीं अकेले केदारनाथ में उन महादेव की आत्मिक अनुभूति होती है। परम्, दिव्य, अनुपम और अलौकिक शिवत्व की अकथनीय शिवानुभूति। लगता है मंदाकिनी के कलकल नाद की ताल पर हिमशृंगों से उठती ओंकार नाद की गूंज के बीच स्वयं शिव ही पद्मासन लगाए ध्यानस्थ हैं। केदार शिवजी के असंख्य नामों में से एक हैं, मगर संस्कृत में इसका एक अर्थ क्यारी भी है। सम्भव है चारों ओर हिम शिखरों के बीच क्यारी-सी प्यारी भूमि पर विराजमान होने के कारण यहां भगवान केदारनाथ के रूप में प्रसिद्ध हुए हों। कदाचित क्यारी-सी न्यारी घाटी होने से ही यह क्षेत्र केदार घाटी कहलाया। आसपास के शृंगों का सम्बोधन भी केदार है।

ज्योतिर्लिंग समुद्रतल से कोई साढ़े ग्यारह हजार फ़ीट ऊंची देवभूमि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग ज़िले में स्थित है और हिंदुओं के चार दिशाओं में स्थित चार धामों में एक उत्तर दिशा के बद्रीनाथ के निकट होने से अपने आप में एक धाम की भी गरिमा से वेष्ठित है। उत्तराखंड के चार धाम में तो इसकी स्पष्ट गणना है ही। हिमालय की गोद में स्थित यह शिवालय अत्यंत प्राचीन है और अनजाने काल से पूजित है। इसकी एक और विशेषता है, जो इसे अन्य ज्योतिर्लिंगों से अलग पहचान देती है। वह यह कि हिम क्षेत्र होने के कारण यह वर्ष में छह मास ही दर्शनार्थ खुलता है। शीतकाल में बर्फ़ जमने के कारण मंदिर के पट प्रायः नवम्बर के दूसरे सप्ताह में बंद हो जाते हैं और फिर छह मास बाद अप्रैल-मई में शुभ मुहूर्त देखकर ही पुनः दर्शन के निमित्त खुलते हैं। इस तरह आधे वर्ष मनुष्य और आधे वर्ष देवभूमि के देवता केदारनाथ की पूजा करते हैं।

नर-नारायण, पाण्डव और पंच-केदार

केदारनाथ स्वयंभू ज्योतिर्लिंग हैं, जिनके प्राकट्य को लेकर दो प्रकार की पौराणिक कथाएं हैं। शिवपुराण की पहली कथा के अनुसार भगवान विष्णु के ही अवतार नर-नारायण ऋषियों ने इस स्थान पर तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न किया था। उन पर कृपा करते हुए कालांतर में शिवजी केदार घाटी में ही बस गए। इस तरह नर और नारायण यानी मनुष्य और देवता के सम्मिलित उद्योग ने इस भूमि को महादेव का घर बना लिया। दूसरी कथा महाभारत के पांडवों से जुड़ी है, जो शक्ति और भक्ति की प्रतीक है। इसके अनुसार महायुद्ध में विजयी होने के बावजूद पांडव राज्य के लिए भाइयों की हत्या कर देने पर पाप बोध से भरे हुए थे। इसके लिए वे भगवान शिव का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन शिवजी उनसे रुष्ट थे।

भगवान श्रीकृष्ण की सलाह पर युधिष्ठिर आदिशिव के दर्शन की कामना से काशी गए, पर वहां शिव नहीं मिले। फिर गुप्तकाशी में भी खोजा मगर वहां भी सफलता न मिलने पर खोजते हुए पाण्डव हिमालय तक जा पहुंचे। भगवान शंकर पाण्डवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतर्ध्यान होकर केदार में जा बसे। दूसरी ओर लगन के पक्के पाण्डव भी उनका पीछा करते हुए केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब बैल या महिष का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। कथा कहती है कि शिव के इस व्यवहार का अनुमान होने पर भीम ने अपने विशालकाय पैर दो पर्वतों शिखरों पर रख दिए। तब अन्य सब गाय-बैल तो भीम के नीचे से निकल गए, किंतु बैल रूपी शिव पैर के नीचे से जाने को राज़ी न हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे लेकिन बैल भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा।

तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग कसकर पकड़ लिया। पाण्डवों के इस दृढ़ संकल्प को देख शिव प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन दिए और पाण्डवों को पाप मुक्त कर दिया। तब से ही भगवान शंकर बैल की पीठ के आकृति-पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजे जाते हैं। लोक विश्वास है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ, जहां पशुपतिनाथ का मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मध्यमहेश्वर में और जटाएं कल्पेश्वर में प्रकट हुईं। इसलिए इन चार स्थानों सहित केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है।