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दीपावली के प्राचीन संदर्भ तथा लक्ष्मी के प्राचीन शिल्प

मौर्यकाल से लेकर शुंगों तक और शक से लेकर पाण्ड्यों तक के शासन काल में लक्ष्मी के मनोरम शिल्प शिल्पित किए गए और उनकी उत्कृष्टता झलकी सांची के तोरणद्वारों पर, जहां लक्ष्मी जीवंत रूप में दिखती हैं। माथुरी कला में लक्ष्मी के सभी रूप बड़ी उत्कृष्टता के साथ उकेरे गए और यह परम्परा खजुराहों के मंदिरों में नए उन्मेष के साथ भासमान हो उठी। खजुराहो के मंदिर की भित्तियों पर उत्कीर्ण लक्ष्मी ऐसी प्रतीत होती हैं, जैसे पत्थर को पिघलाकर कलाकार ने नए सिरे से उसे तराश दिया हो।

लक्ष्मी के अनेक रूप शक और पल्लव शासकों से लेकर कल्चुरी और चंदेल शासकों ने मुद्राओं पर भी उकेरे। चित्राकंन की समृद्ध भारतीय परम्परा में प्रायः प्रत्येक राजस्थानी और पहाड़ी शैली में लक्ष्मी के रूपांकन हुए, विशेष रूप से गजलक्ष्मी के। दीप पर्व हमारी सामासिक सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिनिधि पर्व है, जिससे भगवान राम के लंका विजय के बाद अयोध्या आगमन से लेकर, भगवान बुद्ध, महावीर और गुरुनानक तक की स्मृतियां जुड़ी हैं, अनेक कथाएं और आख्यान समाहित हैं।

ऐतिहासिक दृष्टि से यह बड़ा पुराना उत्सव है। बौद्ध ग्रंथों में पाए गए उल्लेखों से ज्ञात होता है कि यह लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व से मनाया जाता रहा है। आरम्भ में इसे ‘यक्षरात्रि’ के रूप में सम्बोधित किया जाता था। ‘यक्ष’ समृद्ध और धनी हुआ करते थे। वे नागों और गंधर्वों की भांति देव रूप में भी माने जाते रहे और बाद के काल में उनकी पूजा होने लगी। यक्ष चूंकि समृद्ध थे, इसलिए यह पर्व बड़े उल्लास से मनाया जाता था और सम्भवतः यही कारण है कि समृद्धि से इस पर्व की चेतना आज भी जुड़ी हुई है।

यह शरद् ऋतु में मनाया जाने वाला पर्व है, जो उत्सवों की ऋतु है। प्राचीन काल में इसे कौमुदी महोत्सव के रूप में भी मनाया जाता था। अन्न के आगमन की ख़ुशी में भी इस पर्व को मनाए जाने के संकेत मिलते हैं। इसे मंगला उत्सव तथा धान्योत्सव के रूप में भी मनाया जाता था। लेकिन आज भी यह पर्व समृद्धि की देवी ‘लक्ष्मी’ की पूजा पर केंद्रित है।

‘महालक्ष्मी’ इस सृष्टि की आद्या शक्ति हैं। यह लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों रूपों में हैं। यही आद्या, आदिशक्ति सृष्टि के मूल में है और इसी से विभिन्न शक्तियां जन्मी हैं। यह तामसी, राजसी और सात्विक तीनों रूपों में है। हम इसके राजसी और सात्विक स्वरूप को मुख्यतः पूजते हैं जो ‘श्री’,‘महालक्ष्मी’,‘भारती’,‘वाक्’ और ‘सरस्वती’ के रूप में है।

विद्वान यह मानते हैं कि मातृका स्वरूप, सिंधु घाटी की सभ्यता के समय से शिल्प में देवियों के रूप में विद्यमान रहा है। लक्ष्मी की सबसे पुरानी मूर्ति महाराष्ट्र के तेर नामक स्थान से सातवाहन काल की मिली है जो ईसा पूर्व तीसरी सदी की है। यह अभी ब्रिटिश म्यूज़ियम लंदन में है। विक्टोरिया एण्ड अलबर्ट म्यूज़ियम लंदन में मौर्यकालीन लक्ष्मी की प्रतिमा है और मथुरा संग्रहालय में ईसा पूर्व दूसरी सदी की शुंगकालीन प्रतिमा है। हमारे यहां मथुरा की समृद्ध शिल्प परम्परा में लक्ष्मी के चार प्रकार के शिल्प उपलब्ध होते हैं।

पहला हाथ में कमल धारण किए, द्विभुजी, आसन पर बैठे हुए। दूसरा इसी रूप में खड़े हुए। तीसरा कमल लताओं के बीच खड़ी मातृत्व का संकेत देते हुए और चौथा गजलक्ष्मी के रूप में जिसमें दोनों ओर से हाथी सूंड से उन्हें जल से अभिषिक्त करते शिल्पित किए गए हैं। लक्ष्मी को कुबेर और हारीति नामक एक देवी के साथ तथा गणेश और वीरभद्र के साथ भी शिल्पित किया गया है।