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भारत के हर एक प्रांत में है मिठाइयों का अलग स्वाद, पेश है मिठाइयों का लज़ीज़ ब्योरा

स्वाद-आबाद स्तम्भ अनेक कड़ियों से देशाटन का एक सुस्वादु माध्यम बना हुआ है। वास्तव में भारत-भूमि इतनी व्यापक और वैविध्यपूर्ण है कि एक परिक्रमा से इसे पूरी तरह जाना नहीं जा सकता। अनेक मंतव्यों से अनेक बार भारत-यात्रा आवश्यक है। कह सकते हैं, भोजन-रसिकों की भारत-यात्रा स्वयं को स्वाद-आबाद सरीखे किसी रूप में ही अभिव्यक्त करेगी।

गभग पूरे उत्तर-भारत में ख़ासकर हिंदी पट्टी वाले देश के मर्मस्थल में दिवाली के साथ मेवे-मिष्टान्न का मौसम शुरू हो जाता है। महालक्ष्मी पूजन के लिए जो नैवेद्य अर्पित किया जाता है, उसमें खीर प्रमुख है और हो भी क्यों ना। इसी क्षीर के सागर पर तो शेषशैया पर भगवान विष्णु लक्ष्मी के साथ विराजमान रहते हैं। पूजा के लिए जो खीर बनाई जाती है, वह दूध और चावल वाली होती है, पर देश के विभिन्न हिस्सों में यह खीर अनाजरहित भी बनाई जाती है। कही मखाने तो कही शकरकंद की। या फिर बंगालियों की छेनापायस! यदि अनाज के बिना मन ना मानता हो तो दक्षिण भारतीय नुस्ख़ों को आज़मा सकते हैं, जिनमें परप्पू पायसम अर्थात दाल वाली खीर बनाई जाती है। मगर भारत में बनाई जाने वाली खीरों की सूची इससे कहीं लम्बी है- चिलगोज़ों की खीर, गन्ने के रस की खीर, अवध के बावर्चियों की नुमाइशी लहसुन की खीर, बोरा मुसलमानों का खीर कोरमा, ताड़ के गुड़ की मिठास वाली चाॅकलेटी खीर।

खीर के साथ दिक़्क़त सिर्फ़ एक है- इसका आनंद आपको तत्काल लेना होता है। इसे बहुत देर तक बचाकर नहीं रखा जा सकता। जबकि दिवाली की मिठाइयों का असली सुख घर-परिवार वालों और बंधु-बांधवों के साथ मिल-बांटकर खाने वाला है। दिवाली बीत जाने के बाद कम से कम एक महीने तक इन मिठाइयों को जाड़े की धूप का सुख भोगते खाया जाता रहा है। दिवाली के अवसर पर खीर के साथ-साथ चीनी के बने खिलौने (जानवरों के आकार वाले) बताशों के साथ पूजा के थाल में रखे और बाद में बांटे जाते थे। यह किसी भी और मिठाई की तुलना में बहुत अधिक टिकाऊ होते हैं।

हमें एक पहाड़ी क़स्बे में बिताया अपना बचपन याद आता है, जब अखरोट को तोड़ उसकी गिरी निकाल बताशे या खिलौनों के साथ निपटाते हम निहाल होते थे। बच्चों को यह सलाह दी जाती थी कि अखरोट ज़्यादा ना खाओ, इससे गला ख़राब होता है। पर मानता कौन था? मेवे के नाम पर गिने-चुने किशमिश, मुनक्के और उनसे भी कम गिनती में काजू होते थे।

आजकल दिवाली के मौक़े पर उपहारों की जो डलिया सजाकर भेंट दी जाती है, उसमें ज़्यादा जगह घेरते हैं, फलों के जूस के डब्बे, चिप्स और चाॅकलेट के पैकेट। बहुत हुआ तो किसी ब्राण्डधारी हलवाई की मिठाइयां, काजू की कतली आदि ढूंढ़ने पर नज़र आ सकते हैं। लेकिन दो पीढ़ी पहले तक दिवाली के मौक़े पर खाई-खिलाई जाने वाली मिठाइयां घर पर ही बनाई जाती थीं। कुछ मिठाइयां ऐसी थीं, जो हर शुभ अवसर पर पकवान के रूप में पकाई जाती थीं, जैसे शक्करपारे और खाजे। गुड़ वाली मीठी रोट। पर अधिकांश मिठाइयां ऐसी थीं, जिन्हें घर की महिलाएं बिना झंझट के घर पर ही बना सकती थीं। इनमें अनाज की मिठाइयां ही प्रमुख थीं, क्योंकि छेने या दूध से बने खोये की मिठाई इनकी तुलना में बहुत जल्दी खराब हो सकती हैं।

लड्डुओं में बेसन के लड्डू, सूजी के लड्डू, आटे के लड्डू घर-घर में बनाए जाते थे। इनमें कुछ लड्डुओं को जाड़े के मौसम में सेहत के लिए मुफ़ीद समझे जाने वाले पदार्थों से और भी सम्पन्न किया जाता था, जैसे गोंद या मेथी। सबसे अधिक पौष्टिक पंजाब की पिन्नी या कई जगह बनाए जाने वाला पंजीरी का लड्डू समझा जाता है। पंजीरी के लड्डू में मिठास के अलावा कुछ मसालों का मज़ा भी मिलता है- सौंठ, कालीमिर्च, सौंफ आदि का। लड्डुओं की विशेषता यह है कि यदि आप साधन-सम्पन्न हैं तो शुद्ध मेवों के लड्डू तैयार कर सकते हैं और यदि हाथ ज़रा तंग हो, तो भी ग़रीबपरवर लड्डू रामदाने, लइया या सफ़ेद और काले तिल के नाममात्र के गुड़ या चीनी के पाक से बातकर बट सकते हैं। बोलचाल की भाषा में हम लड्डुओं को मोदक भी कह देते हैं। गणेश जी की मूर्तियों में उनके एक हाथ में मोदकों का ढेर दिखलाया जाता है।

परंतु महाराष्ट्र और पश्चिमी तटवर्ती इलाक़े में मोदक नाम एक दूसरी मिठाई को दिया जाता है, जिसे चावल के आटे से एक छोटी-सी पोटली के रूप में तैयार किया जाता है। इसके भीतर नारियल, गुड़ और इलायची से तैयार पीठी भरी जाती है। इन मोदकों को भाप से पकाया जाता है। लड्डुओं में हमने बूंदी का ज़िक्र जानबूझकर नहीं किया है, क्योंकि बूंदी झारना ज़रा झंझट का काम है और इसीलिए घर पर यह लड्डू कम बनाए जाते हैं। दक्षिण भारत में आमतौर पर जो लड्डू बनाया जाता है, वह नारियल वाला होता है, शायद इसलिए कि वहां नारियल आसानी से मिल जाता है और उसकी गुणवत्ता भी श्रेष्ठ होती है।

एक और मिठाई, जो आजकल जाने क्यों घर पर नहीं बनाई जाती, लेकिन पहले इस मौसम में लगभग हर जगह दिखलाई दी जाती थी- बर्फी है। शायद इसका एक कारण यह भी है कि दानेदार खोये की मुंह में खुल जाने वाली कलाकंदनुमा बर्फी बनाने का कौशल कम लोगों के पास बचा है और महंगाई की मार का मुक़ाबला करने के लिए बर्फी में खोये की मिकदार कम और चीनी की मात्रा निरंतर बढ़ने से इस मिठाई ने अपना आकर्षण खो दिया है। छेने की मिठाई की तुलना में खोये की बर्फी अधिक टिकाऊ होती है। बर्फी बिना खोये के भी बड़े मजे़ में बनाई जा सकती है। बेसन की बर्फी और नारियल की बर्फी इसी का उदाहरण है (जिसे कहीं-कहीं खोपरापाक भी कहते हैं)। मथुरा, वृंदावन इलाक़े का मोहनथाल जब कर्नाटक में मैसूर पहुंचता है तो उसे मैसूर पाक की शक्ल लेने में देर नहीं लगती। इसमें घी, चीनी और बेसन के अलावा कुछ नहीं पड़ता। सुवासित करने के लिए इलायची के कुछ दानों को छोड़कर। शायद शुद्ध घी के दुर्लभ होने और निरंतर महंगा होते जाने के कारण ही इसका चलन कम हुआ है।

पंजाब में बनाए जाने वाले पतीसे भी शायद इसी कारण अब कम दिखलाई देते हैं। सिंधी लोग सेवइयों की बर्फी बनाते हैं जिसे सेब की बर्फी कहा जाता है, लेकिन इस मिठाई का दूर-दराज़ का नाता सेब नाम के फल से नहीं। पहले खोये की साधारण बर्फी से एक सोपान ऊपर बादाम की बर्फी बिराजती थी और सबसे ऊपर ताजपोशी होती थी पिस्ते की लौंज की। पर अब पिस्ते की क़ीमतें आसमान छूने लगी हैं और बर्फी का छोटा-सा टुकड़ा यदि ख़ालिस सामग्री से तैयार किया गया हो तो 50-60 रुपये से ऊपर बिकता है। यह नवधनकुबेरों की दिवाली की मिठाई में नज़र आता है, विदेशी चाॅकलेटों की तरह काग़ज़ की सजावटी चौकी पर विराजमान होकर।