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पुण्य भूमि भारत, जहां कई प्रकार की संस्कृति, परंपराएं और जीवन शैली देखने को मिलती है। जिस प्रकार ऋतुओं का आना-जाना अलग-अलग अनुभूतियां देता है उसी प्रकार पर्व- त्योहार भी हमारे जीवन में नई उमंग और उत्साह लेकर आते है। हर त्यौहार से कोई न कोई पौराणिक कथा, घटनाएं और परंपराएं जुड़ी होती हैं । ऐसा ही एक त्यौहार है अक्षय तृतीया, जिससे कई मान्यताएं और आस्था जुड़ी हुई हैं। ये त्यौहार विशेष तौर पर भगवान लक्ष्मीनारायण को समर्पित होता है।
वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया या आखा तीज भी कहा जाता है। अक्षय का अर्थ होता है जिसका कभी क्षय यानी अंत ना हो। अपने नाम की तरह ऐसे ही अनंत शुभ कार्य इस तिथि में हुए हैं। इसीलिए ये तिथि अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त कही जाती है।
अक्षय तृतीया के दिन ही बैकुंठ की महारानी भगवती लक्ष्मी श्रीहरि विष्णु जी सहित गरुड़ पर आसीन हो कर पृथ्वी पर आती हैं। इसलिए इस दिन लक्ष्मीनारायण की पूजा का विधान हमारे शास्त्रों में बताया गया है। आखिर अक्षय तृतीया को ही इतना महत्वपूर्ण स्थान क्यों दिया गया है और कौन से ऐसे शुभ कार्य हैं जो पहले इसी दिन हुए, आइये जानते हैं।
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इसी दिन सतयुग का अंत हुआ और फिर त्रेतायुग का आरंभ हुआ । इसलिए संधिकाल होने के कारण पूरा दिन ही अच्छे कार्यों के लिए शुभ माना जाता है
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इसी दिन महर्षि परशुराम, हयग्रीव अवतार एवं नर-नारायण का अवतार हुआ और माता पार्वती ने अन्नपूर्णा जी के रूप में अवतार लिया
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इसी तिथि को श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को चीरहरण से बचाया और श्रीकृष्ण-सुदामा का मंगल मिलन भी हुआ
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यहां तक कि इसी शुभ दिन महाभारत का भीषण युद्ध समाप्त हुआ था
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आज भी उत्तराखंड की छोटी चारधाम यात्रा इसी दिन प्रारम्भ होती है और सबसे पहले यमुनोत्री के कपाट खोल दिये जाते हैं
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वृन्दावन के बाँके बिहारी मंदिर में साल में केवल इसी दिन श्रीविग्रह के चरण दर्शन होते हैं ।
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इस दिन त्रेतायुग में इश्वाकु वंश के राजा भगीरथ की गंगा जी को पृथ्वी पर लाने से जुड़ी तपस्या पूरी हुई और भगवती गंगा पहली बार महादेव की जटाओं से निकलकर धरती पर प्रकट हुईं