जिनका शरीर रक्त वर्ण का है, जो अनेक रंग के सूतों से बुना वस्त्र धारण करने वाली हैं, जिनके मस्तक पर बालचंद्र विराजमान हैं, जो तीनों लोकों के वासियों को सदैव अन्न प्रदान करने में व्यस्त रहती हैं, यौवन से सम्पन्न, भगवान शंकर को अपने सामने नाचते देख प्रसन्न रहने वाली, संसार के सब दु:खों को दूर करने वाली, भगवती अन्नपूर्णा का मैं स्मरण करता हूँ।'
हिन्दू धर्म में अन्न को भगवान माना गया है क्योंकि यह जीवन को चलाने के लिए महत्वपूर्ण है। इसके बिना पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है। इसी अन्न की देवी हैं माता अन्नपूर्णा हैं। ‘अन्न’ (भोजन) और ‘पूर्णा’ (पूर्णता या संपूर्णता)। माता केवल अन्न की दात्री ही नहीं, बल्कि खान-पान का वैभव, समृद्धि, करुणा, और जीवन शक्ति का भी प्रतीक हैं। जहां अन्न का सम्मान होता है, वहां कभी दरिद्रता नहीं आती। उनका स्मरण करने से भोजन की पवित्रता और संतुलन बना रहता है।
कैसे हुआ माता अन्नपूर्णाका प्राकट्य?
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार भगवान शिव ने माता पार्वती से कहा कि यह संसार केवल माया है, भोजन भी माया है। शरीर और अन्न का कोई विशेष महत्व नहीं है। इस बात से माता पार्वती आहत हो गईं और उन्होंने निर्णय लिया कि वह संसार से अन्न के अस्तित्व को हटा देंगी। जैसे ही माता ने यह संकल्प किया, पूरे ब्रह्मांड में अन्न संकट उत्पन्न हो गया। धरती बंजर होने लगी और लोग भूख से व्याकुल हो गए। तब माता पार्वती ने काशी (वाराणसी) में एक रूप धारण किया। वह माता अन्नपूर्णा के रूप में हाथों में अक्षय पात्र (भोजन का कभी न समाप्त होने वाला पात्र) लेकर खड़ी थीं। तभी शिवजी स्वयं भूख से व्याकुल होकर माता अन्नपूर्णा के पास भोजन मांगने पहुंचे, यह स्वीकार करते हुए कि अस्तित्व में शरीर के साथ ही अन्न का भी बड़ा महत्व है। माता ने अन्न उपलब्ध कराकर समस्त मानव जाति की रक्षा की । इस प्रकार, अन्नपूर्णा देवी ने अन्न का दान दिया और तब से उनकी पूजा इस रूप में भी होने लगी।
देवी अन्नपूर्णा का एक हाथ हमेशा दान मुद्रा में होता है। यह बताता है कि दान ही सबसे बड़ा धर्म है। उनके अक्षय पात्र का अर्थ है कि जिस घर में श्रद्धा और सेवा है, वहां अन्न कभी समाप्त नहीं होता। अन्न केवल शरीर का पोषण नहीं करता, वह आत्मा के लिए भी माध्यम है सेवा का। अन्नपूर्णा देवी यह सिखाती हैं कि भोजन केवल खाने की चीज़ नहीं, ईश्वर का प्रसाद है।
क्यों प्रसिद्ध है काशी का अन्नपूर्णा मंदिर ?
यूं तो देश भर में माता अन्नपूर्णा के कई मंदिर हैं लेकिन काशी में विश्वनाथ मंदिर के पास स्थित अन्नपूर्णा देवी का मंदिर अत्यंत दिव्य स्थान है। मान्यता है कि इसी स्थान पर शिवजी ने स्वयं भिक्षुक रूप में माता से भोजन का निवेदन किया था । मंदिर में आज भी इसी प्रसंग से जुड़ी प्रतिमा स्थापित है । श्रद्धालुओं की ऐसी धारणा है कि माँ अन्नपूर्णा की नगरी काशी में कभी कोई भूखा नहीं सोता है।
कब होती है अन्नपूर्णा जयंती ?
जिस दिन माँ अन्नपूर्णा का प्राकट्य हुआ उस दिन मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा थी। इसीलिए इस दिन माँ अन्नपूर्णा की जयंती ( इस बार 4 दिसंबर ) मनाने का विधान है। इस दिन दान-पुण्य करने का विशेष महत्व है। अन्नपूर्णा देवी हिन्दू धर्म में मान्य देवी-देवताओं में विशेष रूप से पूजनीय हैं। इन्हें माँ जगदम्बा का ही एक रूप माना गया है, जिनसे सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है। इन्हीं जगदम्बा के अन्नपूर्णा स्वरूप से संसार का भरण-पोषण होता है।
क्या है माता अन्नपूर्णा का महाव्रत ?
माता अन्नपूर्णा का महाव्रत मार्गशीर्ष (अगहन) महीने के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से शुरू होता है और 17 दिन तक चलता है । इस दिन मां का विशेष श्रृंगार धान की बालियों से होता है । किसान अपनी धान की पहली फसल बालियों के रूप में लाकर मां के चरणों में अर्पित करते हैं । इस महाव्रत में 17 गांठ के धागे भक्तों को दिए जाते हैं और इसे वह धारण करते हैं जिसे महिलाएं बाएं और पुरुष दाहिने हाथ में पहनते हैं। व्रत में अन्न का सेवन वर्जित होता है और बिना नमक का केवल एक वक्त का फलाहार किया जाता है। भक्तों को अंतिम दिन अनुष्ठान के बाद प्रसाद स्वरूप धान की बालियां वितरित की जाती हैं जिसे लोग अपने अन्न के भंडार में रखते हैं । मान्यता है कि इससे वर्ष भर अन्न की कमी नहीं होती ।
अन्नपूर्णे सदापूर्णे शङ्कर प्राणवल्लभे।
ज्ञान वैराग्य सिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति॥
जिनका शरीर रक्त वर्ण का है, जो अनेक रंग के सूतों से बुना वस्त्र धारण करने वाली हैं, जिनके मस्तक पर बालचंद्र विराजमान हैं, जो तीनों लोकों के वासियों को सदैव अन्न प्रदान करने में व्यस्त रहती हैं, यौवन से सम्पन्न, भगवान शंकर को अपने सामने नाचते देख प्रसन्न रहने वाली, संसार के सब दु:खों को दूर करने वाली, भगवती अन्नपूर्णा का मैं स्मरण करता हूँ।'
हिन्दू धर्म में अन्न को भगवान माना गया है क्योंकि यह जीवन को चलाने के लिए महत्वपूर्ण है। इसके बिना पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है। इसी अन्न की देवी हैं माता अन्नपूर्णा हैं। ‘अन्न’ (भोजन) और ‘पूर्णा’ (पूर्णता या संपूर्णता)। माता केवल अन्न की दात्री ही नहीं, बल्कि खान-पान का वैभव, समृद्धि, करुणा, और जीवन शक्ति का भी प्रतीक हैं। जहां अन्न का सम्मान होता है, वहां कभी दरिद्रता नहीं आती। उनका स्मरण करने से भोजन की पवित्रता और संतुलन बना रहता है।
कैसे हुआ माता अन्नपूर्णाका प्राकट्य?
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार भगवान शिव ने माता पार्वती से कहा कि यह संसार केवल माया है, भोजन भी माया है। शरीर और अन्न का कोई विशेष महत्व नहीं है। इस बात से माता पार्वती आहत हो गईं और उन्होंने निर्णय लिया कि वह संसार से अन्न के अस्तित्व को हटा देंगी। जैसे ही माता ने यह संकल्प किया, पूरे ब्रह्मांड में अन्न संकट उत्पन्न हो गया। धरती बंजर होने लगी और लोग भूख से व्याकुल हो गए। तब माता पार्वती ने काशी (वाराणसी) में एक रूप धारण किया। वह माता अन्नपूर्णा के रूप में हाथों में अक्षय पात्र (भोजन का कभी न समाप्त होने वाला पात्र) लेकर खड़ी थीं। तभी शिवजी स्वयं भूख से व्याकुल होकर माता अन्नपूर्णा के पास भोजन मांगने पहुंचे, यह स्वीकार करते हुए कि अस्तित्व में शरीर के साथ ही अन्न का भी बड़ा महत्व है। माता ने अन्न उपलब्ध कराकर समस्त मानव जाति की रक्षा की । इस प्रकार, अन्नपूर्णा देवी ने अन्न का दान दिया और तब से उनकी पूजा इस रूप में भी होने लगी।
देवी अन्नपूर्णा का एक हाथ हमेशा दान मुद्रा में होता है। यह बताता है कि दान ही सबसे बड़ा धर्म है। उनके अक्षय पात्र का अर्थ है कि जिस घर में श्रद्धा और सेवा है, वहां अन्न कभी समाप्त नहीं होता। अन्न केवल शरीर का पोषण नहीं करता, वह आत्मा के लिए भी माध्यम है सेवा का। अन्नपूर्णा देवी यह सिखाती हैं कि भोजन केवल खाने की चीज़ नहीं, ईश्वर का प्रसाद है।
क्यों प्रसिद्ध है काशी का अन्नपूर्णा मंदिर ?
यूं तो देश भर में माता अन्नपूर्णा के कई मंदिर हैं लेकिन काशी में विश्वनाथ मंदिर के पास स्थित अन्नपूर्णा देवी का मंदिर अत्यंत दिव्य स्थान है। मान्यता है कि इसी स्थान पर शिवजी ने स्वयं भिक्षुक रूप में माता से भोजन का निवेदन किया था । मंदिर में आज भी इसी प्रसंग से जुड़ी प्रतिमा स्थापित है । श्रद्धालुओं की ऐसी धारणा है कि माँ अन्नपूर्णा की नगरी काशी में कभी कोई भूखा नहीं सोता है।
कब होती है अन्नपूर्णा जयंती ?
जिस दिन माँ अन्नपूर्णा का प्राकट्य हुआ उस दिन मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा थी। इसीलिए इस दिन माँ अन्नपूर्णा की जयंती ( इस बार 4 दिसंबर ) मनाने का विधान है। इस दिन दान-पुण्य करने का विशेष महत्व है। अन्नपूर्णा देवी हिन्दू धर्म में मान्य देवी-देवताओं में विशेष रूप से पूजनीय हैं। इन्हें माँ जगदम्बा का ही एक रूप माना गया है, जिनसे सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है। इन्हीं जगदम्बा के अन्नपूर्णा स्वरूप से संसार का भरण-पोषण होता है।
क्या है माता अन्नपूर्णा का महाव्रत ?
माता अन्नपूर्णा का महाव्रत मार्गशीर्ष (अगहन) महीने के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से शुरू होता है और 17 दिन तक चलता है । इस दिन मां का विशेष श्रृंगार धान की बालियों से होता है । किसान अपनी धान की पहली फसल बालियों के रूप में लाकर मां के चरणों में अर्पित करते हैं । इस महाव्रत में 17 गांठ के धागे भक्तों को दिए जाते हैं और इसे वह धारण करते हैं जिसे महिलाएं बाएं और पुरुष दाहिने हाथ में पहनते हैं। व्रत में अन्न का सेवन वर्जित होता है और बिना नमक का केवल एक वक्त का फलाहार किया जाता है। भक्तों को अंतिम दिन अनुष्ठान के बाद प्रसाद स्वरूप धान की बालियां वितरित की जाती हैं जिसे लोग अपने अन्न के भंडार में रखते हैं । मान्यता है कि इससे वर्ष भर अन्न की कमी नहीं होती ।
अन्नपूर्णे सदापूर्णे शङ्कर प्राणवल्लभे।
ज्ञान वैराग्य सिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति॥