Sanskar

क्यों, कब और कैसे स्थापित हुआ विठ्ठलनाथ मंदिर ?

भारत की भूमि पर जितने मंदिर हैं, उतनी ही कहानियां भी हैं। हर मंदिर की स्थापना के पीछे कोई न कोई गहरा कारण, कोई चमत्कार, कोई भक्ति या कोई सीख छिपी रहती है। महाराष्ट्र के पंढरपुर में 11वीं शताब्दी में स्थापित विठ्ठलनाथ मंदिर भी ऐसी ही एक अद्भुत कथा से जुड़ा है - एक ऐसी कहानी, जो बताती है कि भगवान भक्तों की भक्ति से कितने जल्दी प्रसन्न होते हैं और सच्चा प्रेम उनके हृदय को कैसे पिघला देता है।  यह सिर्फ़ एक मंदिर नहीं, बल्कि भक्ति, सेवा और विनम्रता का सजीव प्रतीक है।

 

भगवान विठोबा का नाम —

‘वि’ ज्ञान का और ‘ठोबा’ आकार या स्वरूप का प्रतीक है। इस प्रकार विठोबा का अर्थ हुआ—ज्ञान का आकार, यानी ज्ञानस्वरूप भगवान। कुछ विद्वान बताते हैं कि “विठ्ठल” शब्द “विट” यानी ईंट से बनता है। क्योंकि भगवान विठ्ठल भक्त पुंडलिक द्वारा दी गई ईंट पर ही खड़े हुए थे। महाराष्ट्र के लोग उन्हें प्रेम से पांडुरंग, विठोबा, विट्ठल-मौली, पंढरीनाथ आदि नामों से पुकारते हैं। माना जाता है कि यह रूप भगवान विष्णु के कृष्ण अवतार का है । 

 

पुंडलिक: भक्ति और सेवा की अद्भुत कथा

विठ्ठलनाथ मंदिर की स्थापना का असली कारण पुंडलिक नामक भक्त से जुड़ा है। एक समय की बात है, पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा नहीं करता था। विवाह के बाद उसका व्यवहार और भी खराब हो गया। दुखी माता-पिता काशी जाने लगे। पुंडलिक भी उनके साथ चल पड़ा, लेकिन रास्ते भर उन्हें पैदल चलाता रहा और स्वयं घोड़े पर चलता रहा।

 

यात्रा के दौरान वे ऋषि कुक्कुटस्वामी के आश्रम में रुके। वहाँ पुंडलिक ने एक दिव्य घटना देखी, जिसमें तीन दिव्य स्त्रियाँ आतीं, उनके कपड़े अत्यंत गंदे होते और पूजन के बाद वे बिल्कुल स्वच्छ हो जाते। जब पुंडलिक ने उनसे पूछा, तो उन्होंने बताया कि “हम गंगा, यमुना और भारत की सभी पवित्र नदियाँ हैं। लोग अपने पाप धोने के लिए हमारे पास आते हैं और तुम माता-पिता की सेवा न करके सबसे बड़ा पाप कर रहे हो।”

ये वचन सुनकर पुंडलिक का हृदय बदल गया। उसने तुरंत अपने माता-पिता की पूर्ण निष्ठा से सेवा करनी शुरू कर दी। माता-पिता की ऐसी सच्ची सेवा देखकर भगवान कृष्ण रुक्मिणी जी के साथ स्वयं पुंडलिक के घर आ गए। उस समय पुंडलिक अपने माता-पिता के चरण दबा रहे थे । उसने भगवान से कहा कि "प्रभु, कृपया इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा करें, मैं पहले अपने माता-पिता की सेवा पूरी कर लूं।”

भगवान मुस्कुराए और प्रतीक्षा करने लगे। बताया जाता है कि उसी क्षण भगवान वहां ईंट पर खड़े हुए विठ्ठल के रूप में प्रकट हुए। जब पुंडलिक बाहर आया, तो भगवान ने उससे वर माँगने को कहा। पुंडलिक ने कहा— “प्रभु, आप यूं ही यहीं रहें और सभी भक्तों को दर्शन दें।”

भगवान वहीं रह गए, फिर उसी स्थान पर विठ्ठलनाथ मंदिर की स्थापना हुई। पंढरपुर सिर्फ़ एक शहर नहीं - यह वारकरी परंपरा की आत्मा, संतों की धरती और भक्ति का केंद्र है। हर वर्ष लाखों भक्त पैदल यात्रा कर विठोबा के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। इस मंदिर में भगवान विट्ठल के साथ माता रुक्मणी की मूर्ति है। मंदिर की गरिमा, विठोबा का स्नेहपूर्ण स्वरूप और भक्तों की आस्था, सब मिलकर इसे एक दिव्य अनुभव बनाते हैं।

 

समचरणसरोजसान्द्रं नीलाम्बुदाभां जघन निहित पाणिं मण्डनं मण्डनानाम्।

तरुण तुलसीमाला कन्धंर कञ्जनेत्रं सद्य धवल हासं विठ्ठलं चिन्तयामि।।

 

भावार्थ -

‘मैं उन भगवान् विठ्ठल का ध्यान करता हूँ, जो अपने पाद-पद्मों को समानांतर रखे, नील मेघ के समान श्याम वर्ण, कंधे पर तुलसीमाला धारण किए, तरुण-रूप, कमल जैसे नेत्र, कोमल मुस्कान और प्रेम से भरे हुए हैं। वे अपने हाथों को कमर पर रखे ईंट पर खड़े हुए भक्तों के मुख को निहार रहे हैं।‘

 

आज भी विठोबा ईंट पर दोनों हाथ कमर पर रखे, पैर जुड़े हुए और शांत मुद्रा में वैसे ही खड़े हैं, हर उस भक्त की प्रतीक्षा में जो प्रेम, भक्ति और सेवा के साथ उनके द्वार पर पहुँचे। पंढरपुर जाकर विठोबा के चरण छूना सिर्फ़ पूजा नहीं - आत्मा को शांति देने वाला अनुभव है।

 

हर साल होती है वारी यात्रा’

महाराष्ट्र के पंढरपुर में आयोजित होने वाली वार्षिक 'वारी यात्रा' श्रद्धा, समर्पण और परंपरा का जीवंत उदाहरण बन जाती है। आषाढ़ मास की एकादशी के दिन विट्ठल मंदिर भक्ति की लहरों से सराबोर हो उठा है। लाखों भक्त संत तुकाराम और संत ज्ञानेश्वर की पादुकाएं लेकर देहू से पंढरपुर तक की पदयात्रा कर विट्ठल भगवान के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। यह यात्रा लगभग 15 दिनों में विभिन्न मार्गों से होते हुए पंढरपुर स्थित भीमा नदी (चंद्रभागा) के तट पर स्थित भगवान विट्ठल के मंदिर में सम्पन्न होती है। वारकरी संप्रदाय के अनुयायी 'विठ्ठल-विठ्ठल' के जयघोष के साथ आगे बढ़ते हैं। यह परंपरा लगभग आठ शताब्दियों से चली आ रही है। वारी यात्रा ना केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है बल्कि यह समाज में समानता, त्याग और सेवा की भावना को भी जीवंत करती है। इसमें अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, जाति-धर्म का कोई भेद नहीं होता – सभी एकसमान भाव से विठ्ठल भक्ति में रमे होते हैं।

 

: - वर्तिका श्रीवास्तव

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क्यों, कब और कैसे स्थापित हुआ विठ्ठलनाथ मंदिर ?

भारत की भूमि पर जितने मंदिर हैं, उतनी ही कहानियां भी हैं। हर मंदिर की स्थापना के पीछे कोई न कोई गहरा कारण, कोई चमत्कार, कोई भक्ति या कोई सीख छिपी रहती है। महाराष्ट्र के पंढरपुर में 11वीं शताब्दी में स्थापित विठ्ठलनाथ मंदिर भी ऐसी ही एक अद्भुत कथा से जुड़ा है - एक ऐसी कहानी, जो बताती है कि भगवान भक्तों की भक्ति से कितने जल्दी प्रसन्न होते हैं और सच्चा प्रेम उनके हृदय को कैसे पिघला देता है।  यह सिर्फ़ एक मंदिर नहीं, बल्कि भक्ति, सेवा और विनम्रता का सजीव प्रतीक है।

 

भगवान विठोबा का नाम —

‘वि’ ज्ञान का और ‘ठोबा’ आकार या स्वरूप का प्रतीक है। इस प्रकार विठोबा का अर्थ हुआ—ज्ञान का आकार, यानी ज्ञानस्वरूप भगवान। कुछ विद्वान बताते हैं कि “विठ्ठल” शब्द “विट” यानी ईंट से बनता है। क्योंकि भगवान विठ्ठल भक्त पुंडलिक द्वारा दी गई ईंट पर ही खड़े हुए थे। महाराष्ट्र के लोग उन्हें प्रेम से पांडुरंग, विठोबा, विट्ठल-मौली, पंढरीनाथ आदि नामों से पुकारते हैं। माना जाता है कि यह रूप भगवान विष्णु के कृष्ण अवतार का है । 

 

पुंडलिक: भक्ति और सेवा की अद्भुत कथा

विठ्ठलनाथ मंदिर की स्थापना का असली कारण पुंडलिक नामक भक्त से जुड़ा है। एक समय की बात है, पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा नहीं करता था। विवाह के बाद उसका व्यवहार और भी खराब हो गया। दुखी माता-पिता काशी जाने लगे। पुंडलिक भी उनके साथ चल पड़ा, लेकिन रास्ते भर उन्हें पैदल चलाता रहा और स्वयं घोड़े पर चलता रहा।

 

यात्रा के दौरान वे ऋषि कुक्कुटस्वामी के आश्रम में रुके। वहाँ पुंडलिक ने एक दिव्य घटना देखी, जिसमें तीन दिव्य स्त्रियाँ आतीं, उनके कपड़े अत्यंत गंदे होते और पूजन के बाद वे बिल्कुल स्वच्छ हो जाते। जब पुंडलिक ने उनसे पूछा, तो उन्होंने बताया कि “हम गंगा, यमुना और भारत की सभी पवित्र नदियाँ हैं। लोग अपने पाप धोने के लिए हमारे पास आते हैं और तुम माता-पिता की सेवा न करके सबसे बड़ा पाप कर रहे हो।”

ये वचन सुनकर पुंडलिक का हृदय बदल गया। उसने तुरंत अपने माता-पिता की पूर्ण निष्ठा से सेवा करनी शुरू कर दी। माता-पिता की ऐसी सच्ची सेवा देखकर भगवान कृष्ण रुक्मिणी जी के साथ स्वयं पुंडलिक के घर आ गए। उस समय पुंडलिक अपने माता-पिता के चरण दबा रहे थे । उसने भगवान से कहा कि "प्रभु, कृपया इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा करें, मैं पहले अपने माता-पिता की सेवा पूरी कर लूं।”

भगवान मुस्कुराए और प्रतीक्षा करने लगे। बताया जाता है कि उसी क्षण भगवान वहां ईंट पर खड़े हुए विठ्ठल के रूप में प्रकट हुए। जब पुंडलिक बाहर आया, तो भगवान ने उससे वर माँगने को कहा। पुंडलिक ने कहा— “प्रभु, आप यूं ही यहीं रहें और सभी भक्तों को दर्शन दें।”

भगवान वहीं रह गए, फिर उसी स्थान पर विठ्ठलनाथ मंदिर की स्थापना हुई। पंढरपुर सिर्फ़ एक शहर नहीं - यह वारकरी परंपरा की आत्मा, संतों की धरती और भक्ति का केंद्र है। हर वर्ष लाखों भक्त पैदल यात्रा कर विठोबा के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। इस मंदिर में भगवान विट्ठल के साथ माता रुक्मणी की मूर्ति है। मंदिर की गरिमा, विठोबा का स्नेहपूर्ण स्वरूप और भक्तों की आस्था, सब मिलकर इसे एक दिव्य अनुभव बनाते हैं।

 

समचरणसरोजसान्द्रं नीलाम्बुदाभां जघन निहित पाणिं मण्डनं मण्डनानाम्।

तरुण तुलसीमाला कन्धंर कञ्जनेत्रं सद्य धवल हासं विठ्ठलं चिन्तयामि।।

 

भावार्थ -

‘मैं उन भगवान् विठ्ठल का ध्यान करता हूँ, जो अपने पाद-पद्मों को समानांतर रखे, नील मेघ के समान श्याम वर्ण, कंधे पर तुलसीमाला धारण किए, तरुण-रूप, कमल जैसे नेत्र, कोमल मुस्कान और प्रेम से भरे हुए हैं। वे अपने हाथों को कमर पर रखे ईंट पर खड़े हुए भक्तों के मुख को निहार रहे हैं।‘

 

आज भी विठोबा ईंट पर दोनों हाथ कमर पर रखे, पैर जुड़े हुए और शांत मुद्रा में वैसे ही खड़े हैं, हर उस भक्त की प्रतीक्षा में जो प्रेम, भक्ति और सेवा के साथ उनके द्वार पर पहुँचे। पंढरपुर जाकर विठोबा के चरण छूना सिर्फ़ पूजा नहीं - आत्मा को शांति देने वाला अनुभव है।

 

हर साल होती है वारी यात्रा’

महाराष्ट्र के पंढरपुर में आयोजित होने वाली वार्षिक 'वारी यात्रा' श्रद्धा, समर्पण और परंपरा का जीवंत उदाहरण बन जाती है। आषाढ़ मास की एकादशी के दिन विट्ठल मंदिर भक्ति की लहरों से सराबोर हो उठा है। लाखों भक्त संत तुकाराम और संत ज्ञानेश्वर की पादुकाएं लेकर देहू से पंढरपुर तक की पदयात्रा कर विट्ठल भगवान के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। यह यात्रा लगभग 15 दिनों में विभिन्न मार्गों से होते हुए पंढरपुर स्थित भीमा नदी (चंद्रभागा) के तट पर स्थित भगवान विट्ठल के मंदिर में सम्पन्न होती है। वारकरी संप्रदाय के अनुयायी 'विठ्ठल-विठ्ठल' के जयघोष के साथ आगे बढ़ते हैं। यह परंपरा लगभग आठ शताब्दियों से चली आ रही है। वारी यात्रा ना केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है बल्कि यह समाज में समानता, त्याग और सेवा की भावना को भी जीवंत करती है। इसमें अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, जाति-धर्म का कोई भेद नहीं होता – सभी एकसमान भाव से विठ्ठल भक्ति में रमे होते हैं।

 

: - वर्तिका श्रीवास्तव