देवी लक्ष्मी ‘श्री’ अर्थात समृद्धि, वैभव और सौभाग्य की अधिष्ठात्री हैं। जहाँ लक्ष्मी होती हैं, वहाँ धन, सम्मान और जीवन की ऊर्जा बनी रहती है। लेकिन एक समय ऐसा आया जब संसार से अचानक धन विलुप्त हो गया और पूरा देवलोक श्रीहीन हो गया। देवराज इंद्र के अभिमान के कारण देवता इस श्राप के भागी बने और उन्हें इस दंश को झेलना पड़ा। इसी प्रसंग से जुड़ी है सिंधु-सुता भगवती महालक्ष्मी के प्राकट्य की प्रसिद्ध कथा।
इंद्र का अहंकार और दुर्वासा का श्राप
एक बार महर्षि दुर्वासा एक दिव्य पुष्पमाला लेकर देवराज इंद्र को भेंट करने के लिए पहुंचे । देवराज इंद्र ने अपने अभिमानवश उस माला को आदर से रखने की बजाय अपने हाथी ऐरावत के सिर पर डाल दिया। तेज सुगंध के कारण ऐरावत ने माला को धरती पर गिराकर पैरों से रौंद डाला। यह देखकर ऋषि दुर्वासा बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने इंद्र को ‘श्रीहीन’ होने का श्राप दे दिया। इसी के प्रभाव से इंद्र सहित सभी देवता लक्ष्मी विहीन हो गए। देवलोक से धन, सुख और समृद्धि समाप्त हो गई और देवी लक्ष्मी स्वर्ग छोड़कर चली गईं।
देवताओं की दुविधा का उपाय
देवराज इंद्र के कर्मों की सजा पूरे देवलोक को झेलनी पड़ी और धीरे-धीरे असुरों ने पूरे स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया । थक-हारकर देवता ब्रह्मा जी के साथ विष्णु भगवान के पास पहुंचे। भगवान विष्णु ने कहा - “लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करने के लिए समुद्र-मंथन करना होगा। देवताओं और असुरों को साथ मिलकर मंथन करना होगा तभी धन-संपत्ति और सुख-संपदा देवी लक्ष्मी के साथ वापस लौटेंगी।
समुद्र-मंथन की शुरुआत
समुद्र को मथने के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया लेकिन जब वह समुद्र में डूबने लगा तब भगवान विष्णु ने कच्छप (कछुआ) का अवतार लेकर पर्वत को अपनी पीठ पर उठा लिया। नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया । इसके बाद देवता और असुर दोनों मिलकर समुद्र का मंथन करने लगे।
मंथन से निकले 14 रत्न
सबसे पहले निकलकर आया हलाहल विष, जिसे भगवान शिव ने अपने कंठ में रोक लिया। इसी कारण वो ‘नीलकंठ’ कहलाए। इसके बाद एक-एक करके कामधेनु, उच्चैःश्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा अप्सरा, देवी महालक्ष्मी, वारुणी, चंद्रमा, पारिजात वृक्ष, पांचजन्य शंख, धन्वंतरि जी सहित अमृत कलश निकले।
लक्ष्मी जी का प्राकट्य
जब देवी लक्ष्मी समुद्र से प्रकट हुईं तब चारों दिशाएं प्रकाश से भर गईं। लक्ष्मी जी का प्राकट्य होते ही पूरे लोक में एक बार फिर से सकारात्मक ऊर्जा लौट आई। उनकी सुंदरता देखकर देवता और असुर सभी मोहित हो गए। समुद्र देव ने उन्हें पीले वस्त्र और विश्वकर्मा जी ने उन्हें कमल भेंट किया और इसी के साथ ही देवी लक्ष्मी ‘सिंधुसुता’ कहलाईं और भगवान नारायण से विवाह होने के पश्चात ही संसार में सुख, शांति और समृद्धि के रूप में पुन: लौट आईं। इस प्रकार सिंधुसुता का अर्थ है 'सिंधु (समुद्र) की बेटी' । यह मुख्य रूप से देवी लक्ष्मी के नाम का पर्यायवाची भी है ।
सिन्धु सुता मैं सुमिरौं तोही। ज्ञान बुद्धि विद्या दो मोहि॥
तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरबहु आस हमारी॥
देवी लक्ष्मी ‘श्री’ अर्थात समृद्धि, वैभव और सौभाग्य की अधिष्ठात्री हैं। जहाँ लक्ष्मी होती हैं, वहाँ धन, सम्मान और जीवन की ऊर्जा बनी रहती है। लेकिन एक समय ऐसा आया जब संसार से अचानक धन विलुप्त हो गया और पूरा देवलोक श्रीहीन हो गया। देवराज इंद्र के अभिमान के कारण देवता इस श्राप के भागी बने और उन्हें इस दंश को झेलना पड़ा। इसी प्रसंग से जुड़ी है सिंधु-सुता भगवती महालक्ष्मी के प्राकट्य की प्रसिद्ध कथा।
इंद्र का अहंकार और दुर्वासा का श्राप
एक बार महर्षि दुर्वासा एक दिव्य पुष्पमाला लेकर देवराज इंद्र को भेंट करने के लिए पहुंचे । देवराज इंद्र ने अपने अभिमानवश उस माला को आदर से रखने की बजाय अपने हाथी ऐरावत के सिर पर डाल दिया। तेज सुगंध के कारण ऐरावत ने माला को धरती पर गिराकर पैरों से रौंद डाला। यह देखकर ऋषि दुर्वासा बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने इंद्र को ‘श्रीहीन’ होने का श्राप दे दिया। इसी के प्रभाव से इंद्र सहित सभी देवता लक्ष्मी विहीन हो गए। देवलोक से धन, सुख और समृद्धि समाप्त हो गई और देवी लक्ष्मी स्वर्ग छोड़कर चली गईं।
देवताओं की दुविधा का उपाय
देवराज इंद्र के कर्मों की सजा पूरे देवलोक को झेलनी पड़ी और धीरे-धीरे असुरों ने पूरे स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया । थक-हारकर देवता ब्रह्मा जी के साथ विष्णु भगवान के पास पहुंचे। भगवान विष्णु ने कहा - “लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करने के लिए समुद्र-मंथन करना होगा। देवताओं और असुरों को साथ मिलकर मंथन करना होगा तभी धन-संपत्ति और सुख-संपदा देवी लक्ष्मी के साथ वापस लौटेंगी।
समुद्र-मंथन की शुरुआत
समुद्र को मथने के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया लेकिन जब वह समुद्र में डूबने लगा तब भगवान विष्णु ने कच्छप (कछुआ) का अवतार लेकर पर्वत को अपनी पीठ पर उठा लिया। नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया । इसके बाद देवता और असुर दोनों मिलकर समुद्र का मंथन करने लगे।
मंथन से निकले 14 रत्न
सबसे पहले निकलकर आया हलाहल विष, जिसे भगवान शिव ने अपने कंठ में रोक लिया। इसी कारण वो ‘नीलकंठ’ कहलाए। इसके बाद एक-एक करके कामधेनु, उच्चैःश्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा अप्सरा, देवी महालक्ष्मी, वारुणी, चंद्रमा, पारिजात वृक्ष, पांचजन्य शंख, धन्वंतरि जी सहित अमृत कलश निकले।
लक्ष्मी जी का प्राकट्य
जब देवी लक्ष्मी समुद्र से प्रकट हुईं तब चारों दिशाएं प्रकाश से भर गईं। लक्ष्मी जी का प्राकट्य होते ही पूरे लोक में एक बार फिर से सकारात्मक ऊर्जा लौट आई। उनकी सुंदरता देखकर देवता और असुर सभी मोहित हो गए। समुद्र देव ने उन्हें पीले वस्त्र और विश्वकर्मा जी ने उन्हें कमल भेंट किया और इसी के साथ ही देवी लक्ष्मी ‘सिंधुसुता’ कहलाईं और भगवान नारायण से विवाह होने के पश्चात ही संसार में सुख, शांति और समृद्धि के रूप में पुन: लौट आईं। इस प्रकार सिंधुसुता का अर्थ है 'सिंधु (समुद्र) की बेटी' । यह मुख्य रूप से देवी लक्ष्मी के नाम का पर्यायवाची भी है ।
सिन्धु सुता मैं सुमिरौं तोही। ज्ञान बुद्धि विद्या दो मोहि॥
तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरबहु आस हमारी॥