कौन हैं चिरंजीव महाबली जामवंत, कैसे मिले प्रभु राम और कृष्ण ?
हिंदू धर्मग्रंथों में कुछ ऐसे महान और दिव्य पात्र मिलते हैं, जिनका जीवन भक्ति, अपार बल, बुद्धिमत्ता और विनम्रता का अद्भुत संगम है। ऐसे ही एक पात्र हैं जामवंत, जिन्हें ब्रह्मा जी का मानस पुत्र (कल्पना से बनाये गए) माना जाता है। ब्रह्मा जी ने अधर्म और अत्याचार के प्रतीक रावण के विनाश तथा धर्म की स्थापना के लिए श्रीराम की सहायता हेतु जामवंत की रचना की थी। जामवंत रीछ (ऋक्ष) रूप में अवतरित हुए, वे दो पैरों पर चलने वाले, संवाद करने वाले और धर्म-पथ पर अडिग रहने वाले रीछ मानव थे। जामवंत का जीवन केवल रामायण तक सीमित नहीं है, बल्कि उनका उल्लेख महाभारत काल में भी मिलता है, जिससे उनके दीर्घायुत्व और दिव्यता का पता चलता है। जामवंत में करोड़ो सिंह की शक्ति थी। इस पूरी पृथ्वी की परिक्रमा को जामवंत कुछ ही क्षण में कर लेते थे। मान्यता है कि सृष्टि के आदि में प्रथम कल्प के सतयुग में जामवन्तजी उत्पन्न हुए थे। जामवन्त को चिरंजीवियों में शामिल किया गया है जो कलियुग के अंत तक रहेंगे। इन्होंने लगभग सभी प्रमुख घटनाओं को अपनी आंखो से देखा है।
त्रेतायुग में जामवंत
त्रेता में रामायण काल तक आते-आते जामवंत बहुत वृद्ध हो चुके थे। वाल्मीकि रामायण (किष्किंधा कांड, सर्ग 65) में इसका सुंदर वर्णन मिलता है। जब जामवंत वानरों की छलांग लगाने की शक्ति परख रहे थे, तब उन्होंने कहा कि “मेरी युवावस्था में मुझमें भी छलांग लगाने की अद्भुत शक्ति थी, लेकिन अब वह समय नहीं रहा। फिर भी श्रीराम और सुग्रीव के इस कार्य को मैं टाल नहीं सकता। आज भी मैं लगभग साठ योजन तक छलांग लगा सकता हूँ। इसलिए ये मत समझना कि पहले भी मुझमें इतना ही बल था। युवावस्था में मेरा पराक्रम बहुत अधिक था। जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि के यज्ञ में विशाल रूप धारण किया और तीन पगों में तीनों लोक नाप लिए थे, तब मैंने भी बड़े वेग से उनकी परिक्रमा की थी। अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ और मेरी शक्ति कम हो गई है, लेकिन अपने समय में मेरे समान बलवान कोई नहीं था।“
जब किसी भी वानर की शक्ति जामवंत को समुद्र पार करने के योग्य नहीं लगी, तब उन्होंने सभी को बताया कि यह कठिन कार्य केवल हनुमान जी ही कर सकते हैं। उस समय हनुमान जी अपनी अद्भुत शक्तियों को भूल चुके थे। तब जामवंत ने ही उन्हें उनकी शक्तियों का स्मरण कराया।
जामवंत के प्रेरणादायक वचनों से हनुमान जी को अपने सामर्थ्य का बोध हुआ और वे समुद्र लांघने के लिए तैयार हुए। इस प्रकार जामवंत न केवल स्वयं अत्यंत बलशाली थे, बल्कि उन्होंने सही समय पर हनुमान जी को उनका उद्देश्य और क्षमता याद दिलाई।
जब लक्ष्मण जी मूर्छित हुए थे तब जामवंत ही थे जिन्होंने हनुमान जी को हिमालय में मिलने वाली चार दुर्लभ औषधियों के बारे में बताया था
मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।
सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्॥
विशल्यकरणी – शरीर में फंसे शस्त्र निकालने वाली
संधानी – घाव भरने वाली
सुवर्णकरणी – शरीर को स्वस्थ व सुंदर बनाने वाली
संजीवनी – मृत व्यक्ति को जीवित करने वाली
राम-रावण युद्ध में जामवंत रामसेना के सेनापति थे। युद्ध समाप्त होने के बाद जब भगवान राम अयोध्या लौटने लगे, तब जामवंत ने कहा कि इतने बड़े युद्ध में भी उन्हें पसीना तक नहीं आया। राम समझ गए कि जामवंत के मन में अहंकार आ गया है, इसलिए वे मुस्कुरा कर चुप रह गए। जामवंत ने कहा कि युद्ध में सभी को लड़ने का अवसर मिला, पर उन्हें अपनी वीरता दिखाने का मौका नहीं मिला। तब राम ने कहा कि उनकी यह इच्छा द्वापर युग में अगले अवतार में पूरी होगी।
द्वापर युग में जामवंत
द्वापर युग में श्रीकृष्ण के समय की बात है। श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता सत्राजित के पास सूर्यदेव से प्राप्त स्यामंतक मणि थी। सत्राजित के भाई प्रसेनजित उस मणि को पहनकर शिकार पर गए, जहां एक सिंह ने उन्हें मार दिया और मणि ले ली। उस सिंह को जामवंत ने मारकर मणि अपने पास रख ली और अपनी गुफा में ले जाकर अपनी पुत्री को दे दी।
इस घटना के बाद सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर मणि चुराने का आरोप लगा दिया। सत्य को सामने लाने के लिए श्रीकृष्ण को जामवंत से युद्ध करना पड़ा। कई दिनों तक युद्ध चला। अंत में जामवंत थक गए और उन्होंने श्रीराम का स्मरण किया। तभी श्रीकृष्ण ने उन्हें श्रीराम के रूप में दर्शन दिए। जामवंत समझ गए कि श्रीराम ही श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुए हैं और उनका वचन पूरा करने आए हैं। उनका अहंकार टूट गया। उन्होंने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी और अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण से करने का निवेदन किया। कालांतर में जाम्बवती-कृष्ण के संयोग से महाप्रतापी पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम साम्ब रखा गया।
जामवंत का जीवन साहस, सेवा और आत्मबोध का प्रतीक है। उन्होंने श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों के अवतारों को देखा और उनके चरणों में अपना अहंकार त्याग दिया। जामवंत यह संदेश देते हैं कि चाहे व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, जब तक वह विनम्र नहीं होता, तब तक वह पूर्ण नहीं कहलाता। उनकी कथा हमें धर्म, भक्ति और सच्चे बल का मार्ग दिखाती है।
कौन हैं चिरंजीव महाबली जामवंत, कैसे मिले प्रभु राम और कृष्ण ?
हिंदू धर्मग्रंथों में कुछ ऐसे महान और दिव्य पात्र मिलते हैं, जिनका जीवन भक्ति, अपार बल, बुद्धिमत्ता और विनम्रता का अद्भुत संगम है। ऐसे ही एक पात्र हैं जामवंत, जिन्हें ब्रह्मा जी का मानस पुत्र (कल्पना से बनाये गए) माना जाता है। ब्रह्मा जी ने अधर्म और अत्याचार के प्रतीक रावण के विनाश तथा धर्म की स्थापना के लिए श्रीराम की सहायता हेतु जामवंत की रचना की थी। जामवंत रीछ (ऋक्ष) रूप में अवतरित हुए, वे दो पैरों पर चलने वाले, संवाद करने वाले और धर्म-पथ पर अडिग रहने वाले रीछ मानव थे। जामवंत का जीवन केवल रामायण तक सीमित नहीं है, बल्कि उनका उल्लेख महाभारत काल में भी मिलता है, जिससे उनके दीर्घायुत्व और दिव्यता का पता चलता है। जामवंत में करोड़ो सिंह की शक्ति थी। इस पूरी पृथ्वी की परिक्रमा को जामवंत कुछ ही क्षण में कर लेते थे। मान्यता है कि सृष्टि के आदि में प्रथम कल्प के सतयुग में जामवन्तजी उत्पन्न हुए थे। जामवन्त को चिरंजीवियों में शामिल किया गया है जो कलियुग के अंत तक रहेंगे। इन्होंने लगभग सभी प्रमुख घटनाओं को अपनी आंखो से देखा है।
त्रेतायुग में जामवंत
त्रेता में रामायण काल तक आते-आते जामवंत बहुत वृद्ध हो चुके थे। वाल्मीकि रामायण (किष्किंधा कांड, सर्ग 65) में इसका सुंदर वर्णन मिलता है। जब जामवंत वानरों की छलांग लगाने की शक्ति परख रहे थे, तब उन्होंने कहा कि “मेरी युवावस्था में मुझमें भी छलांग लगाने की अद्भुत शक्ति थी, लेकिन अब वह समय नहीं रहा। फिर भी श्रीराम और सुग्रीव के इस कार्य को मैं टाल नहीं सकता। आज भी मैं लगभग साठ योजन तक छलांग लगा सकता हूँ। इसलिए ये मत समझना कि पहले भी मुझमें इतना ही बल था। युवावस्था में मेरा पराक्रम बहुत अधिक था। जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि के यज्ञ में विशाल रूप धारण किया और तीन पगों में तीनों लोक नाप लिए थे, तब मैंने भी बड़े वेग से उनकी परिक्रमा की थी। अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ और मेरी शक्ति कम हो गई है, लेकिन अपने समय में मेरे समान बलवान कोई नहीं था।“
जब किसी भी वानर की शक्ति जामवंत को समुद्र पार करने के योग्य नहीं लगी, तब उन्होंने सभी को बताया कि यह कठिन कार्य केवल हनुमान जी ही कर सकते हैं। उस समय हनुमान जी अपनी अद्भुत शक्तियों को भूल चुके थे। तब जामवंत ने ही उन्हें उनकी शक्तियों का स्मरण कराया।
जामवंत के प्रेरणादायक वचनों से हनुमान जी को अपने सामर्थ्य का बोध हुआ और वे समुद्र लांघने के लिए तैयार हुए। इस प्रकार जामवंत न केवल स्वयं अत्यंत बलशाली थे, बल्कि उन्होंने सही समय पर हनुमान जी को उनका उद्देश्य और क्षमता याद दिलाई।
जब लक्ष्मण जी मूर्छित हुए थे तब जामवंत ही थे जिन्होंने हनुमान जी को हिमालय में मिलने वाली चार दुर्लभ औषधियों के बारे में बताया था
मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।
सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्॥
विशल्यकरणी – शरीर में फंसे शस्त्र निकालने वाली
संधानी – घाव भरने वाली
सुवर्णकरणी – शरीर को स्वस्थ व सुंदर बनाने वाली
संजीवनी – मृत व्यक्ति को जीवित करने वाली
राम-रावण युद्ध में जामवंत रामसेना के सेनापति थे। युद्ध समाप्त होने के बाद जब भगवान राम अयोध्या लौटने लगे, तब जामवंत ने कहा कि इतने बड़े युद्ध में भी उन्हें पसीना तक नहीं आया। राम समझ गए कि जामवंत के मन में अहंकार आ गया है, इसलिए वे मुस्कुरा कर चुप रह गए। जामवंत ने कहा कि युद्ध में सभी को लड़ने का अवसर मिला, पर उन्हें अपनी वीरता दिखाने का मौका नहीं मिला। तब राम ने कहा कि उनकी यह इच्छा द्वापर युग में अगले अवतार में पूरी होगी।
द्वापर युग में जामवंत
द्वापर युग में श्रीकृष्ण के समय की बात है। श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता सत्राजित के पास सूर्यदेव से प्राप्त स्यामंतक मणि थी। सत्राजित के भाई प्रसेनजित उस मणि को पहनकर शिकार पर गए, जहां एक सिंह ने उन्हें मार दिया और मणि ले ली। उस सिंह को जामवंत ने मारकर मणि अपने पास रख ली और अपनी गुफा में ले जाकर अपनी पुत्री को दे दी।
इस घटना के बाद सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर मणि चुराने का आरोप लगा दिया। सत्य को सामने लाने के लिए श्रीकृष्ण को जामवंत से युद्ध करना पड़ा। कई दिनों तक युद्ध चला। अंत में जामवंत थक गए और उन्होंने श्रीराम का स्मरण किया। तभी श्रीकृष्ण ने उन्हें श्रीराम के रूप में दर्शन दिए। जामवंत समझ गए कि श्रीराम ही श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुए हैं और उनका वचन पूरा करने आए हैं। उनका अहंकार टूट गया। उन्होंने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी और अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण से करने का निवेदन किया। कालांतर में जाम्बवती-कृष्ण के संयोग से महाप्रतापी पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम साम्ब रखा गया।
जामवंत का जीवन साहस, सेवा और आत्मबोध का प्रतीक है। उन्होंने श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों के अवतारों को देखा और उनके चरणों में अपना अहंकार त्याग दिया। जामवंत यह संदेश देते हैं कि चाहे व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, जब तक वह विनम्र नहीं होता, तब तक वह पूर्ण नहीं कहलाता। उनकी कथा हमें धर्म, भक्ति और सच्चे बल का मार्ग दिखाती है।