Sanskar

क्या शांति के लिए आध्यात्म का अस्तित्व आवश्यक है ?

 

शांति का साझा आधार। यह बात उन लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर स्वीकार की जाती है जो आत्म-साक्षात्कार के प्रमाण-आधारित यौगिक एवं अनुभवात्मक तरीकों पर भरोसा करते हैं । साथ ही उनके द्वारा भी, जो एक अलग सर्वोच्च सत्ता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं कि दिव्यता या ईश्वर के अस्तित्व को सिर्फ मानवीय साधनों और मन से साबित नहीं किया जा सकता है।

 

आस्तिकों में से कई यह तर्क देते हैं कि यदि धर्म बहुतों को एकजुट करते हैं, तो कईयों को विभाजित भी करते हैं। इसलिए, ईश्वर का अनुशरण करने वाले या ईश्वर में विश्वास रखने वाले समुदायों, समाजों और मानवीय समूहों के सामने चुनौती इन विभाजनकारी प्रयासों को दूर करना और एकजुट करने वाली शक्तियों को आगे लाना है, ताकि धर्म (सनातन) तब तक  एक रचनात्मक भूमिका निभाते रहें जब तक वह मानव चेतना में मौजूद हैं।

 

आत्म-साक्षात्कार के प्रमाणिक और यौगिक अनुभवात्मक तरीकों पर विश्वास करने वाले भी इस बात पर सहमत हैं कि भले ही उन्होंने इसे अभी तक न देखा हो, कुछ दिव्य गुण अवश्य हैं जिन्हें मानवीय तर्क द्वारा सत्यापित (अनुभव) किया जा सकता है। यह इन गुणों की उपस्थिति (अनुभूति) ही है जो उन्हें यह दिलासा देती है कि दयालु, प्रेमपूर्ण और करुणामय दिव्यता का अस्तित्व अवश्य होना चाहिए।

 

‘सर्वव्यापकता’ वह पहला गुण या योग्यता है जो तर्कशील मानवता के मन में दिव्यता के अस्तित्व को विश्वसनीय बनाती है। ठीक से कहें तो, एक तर्कशील मानव मन खुद से तर्क करता है कि उस स्थान पर अपनी शक्ति से कौन शासन कर रहा है, जहां दिव्यता मौजूद नहीं है या अस्तित्व में नहीं है? एक बार जब मानव मन आश्वस्त हो जाता है कि संभवतः ऐसी कोई जगह हो सकती है, जहाँ दिव्य शक्ति का शासन नहीं है, तो वह किसी भी ऐसे दिव्य उपस्थिति के अस्तित्व पर विश्वास करने के लिए किसी के उपदेशों पर भरोसा नहीं करेगा।

 

इस प्रकार सर्वव्यापकता एक विशुद्ध रूप से तर्कशील मन में दिव्यता का स्वयंसिद्ध उचित प्रमाण बन जाती है। यह केवल सही और प्रामाणिक तर्क ही है, जो मानव मन को दिव्यता या ईश्वर की ओर आसक्त रखता है। दूसरी योग्यता न्याय प्रदान करने का आश्वासन भी हो सकती है।

 

एक तर्कशील मानव मन तर्क करता है कि यदि अंत में कोई न्याय नहीं है, तो दिव्यता या ईश्वर के अस्तित्व का कोई मतलब नहीं है। न्याय प्रदान करना किसी भी सर्वशक्तिमान शक्ति की एक स्पष्ट जिम्मेदारी है, जो स्वभाव से सद्गुणी है। इसलिए, न्यायपूर्ण होना एक तर्कशील मानव मन में सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान दिव्यता का एक और गुण बन जाता है। जब मनुष्य के मन/चेतना में दैवीय गुणों और मूल्यों का सही क्रम सामने आता है, तो कोई भी अंदर की अमर शांति के विनम्र अनुभव से दूर नहीं रह सकता। क्या धर्मों को अंदर की शांति के अलावा किसी और चीज़ पर ध्यान देना चाहिए?  चाहे हम ईश्वरवादी हों या नहीं, ‘शांति’ ही हमारा साझा और सर्वव्यापी आधार है।

 

:- गुरु श्री नंदकिशोर जी

(साभार : डक्कन हेराल्ड)

 

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क्या शांति के लिए आध्यात्म का अस्तित्व आवश्यक है ?

 

शांति का साझा आधार। यह बात उन लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर स्वीकार की जाती है जो आत्म-साक्षात्कार के प्रमाण-आधारित यौगिक एवं अनुभवात्मक तरीकों पर भरोसा करते हैं । साथ ही उनके द्वारा भी, जो एक अलग सर्वोच्च सत्ता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं कि दिव्यता या ईश्वर के अस्तित्व को सिर्फ मानवीय साधनों और मन से साबित नहीं किया जा सकता है।

 

आस्तिकों में से कई यह तर्क देते हैं कि यदि धर्म बहुतों को एकजुट करते हैं, तो कईयों को विभाजित भी करते हैं। इसलिए, ईश्वर का अनुशरण करने वाले या ईश्वर में विश्वास रखने वाले समुदायों, समाजों और मानवीय समूहों के सामने चुनौती इन विभाजनकारी प्रयासों को दूर करना और एकजुट करने वाली शक्तियों को आगे लाना है, ताकि धर्म (सनातन) तब तक  एक रचनात्मक भूमिका निभाते रहें जब तक वह मानव चेतना में मौजूद हैं।

 

आत्म-साक्षात्कार के प्रमाणिक और यौगिक अनुभवात्मक तरीकों पर विश्वास करने वाले भी इस बात पर सहमत हैं कि भले ही उन्होंने इसे अभी तक न देखा हो, कुछ दिव्य गुण अवश्य हैं जिन्हें मानवीय तर्क द्वारा सत्यापित (अनुभव) किया जा सकता है। यह इन गुणों की उपस्थिति (अनुभूति) ही है जो उन्हें यह दिलासा देती है कि दयालु, प्रेमपूर्ण और करुणामय दिव्यता का अस्तित्व अवश्य होना चाहिए।

 

‘सर्वव्यापकता’ वह पहला गुण या योग्यता है जो तर्कशील मानवता के मन में दिव्यता के अस्तित्व को विश्वसनीय बनाती है। ठीक से कहें तो, एक तर्कशील मानव मन खुद से तर्क करता है कि उस स्थान पर अपनी शक्ति से कौन शासन कर रहा है, जहां दिव्यता मौजूद नहीं है या अस्तित्व में नहीं है? एक बार जब मानव मन आश्वस्त हो जाता है कि संभवतः ऐसी कोई जगह हो सकती है, जहाँ दिव्य शक्ति का शासन नहीं है, तो वह किसी भी ऐसे दिव्य उपस्थिति के अस्तित्व पर विश्वास करने के लिए किसी के उपदेशों पर भरोसा नहीं करेगा।

 

इस प्रकार सर्वव्यापकता एक विशुद्ध रूप से तर्कशील मन में दिव्यता का स्वयंसिद्ध उचित प्रमाण बन जाती है। यह केवल सही और प्रामाणिक तर्क ही है, जो मानव मन को दिव्यता या ईश्वर की ओर आसक्त रखता है। दूसरी योग्यता न्याय प्रदान करने का आश्वासन भी हो सकती है।

 

एक तर्कशील मानव मन तर्क करता है कि यदि अंत में कोई न्याय नहीं है, तो दिव्यता या ईश्वर के अस्तित्व का कोई मतलब नहीं है। न्याय प्रदान करना किसी भी सर्वशक्तिमान शक्ति की एक स्पष्ट जिम्मेदारी है, जो स्वभाव से सद्गुणी है। इसलिए, न्यायपूर्ण होना एक तर्कशील मानव मन में सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान दिव्यता का एक और गुण बन जाता है। जब मनुष्य के मन/चेतना में दैवीय गुणों और मूल्यों का सही क्रम सामने आता है, तो कोई भी अंदर की अमर शांति के विनम्र अनुभव से दूर नहीं रह सकता। क्या धर्मों को अंदर की शांति के अलावा किसी और चीज़ पर ध्यान देना चाहिए?  चाहे हम ईश्वरवादी हों या नहीं, ‘शांति’ ही हमारा साझा और सर्वव्यापी आधार है।

 

:- गुरु श्री नंदकिशोर जी

(साभार : डक्कन हेराल्ड)