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मृतआत्माओं की मुक्ति के लिए करीब 975 फीट उंची प्रेतशिला पर किया जाता है पिंडदान

आश्विन महीने के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक पितृपक्ष माना जाता है। वैदिक परंपरा और हिंदू मान्यताओं के अनुसार पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना बहुत ही पुण्यकर्म माना गया है। इसके लिए देवताओं ने मनुष्यों को धरती पर पवित्र जगह दी है। जिसका नाम गया है। यहां श्राद्ध और तर्पण करने से पितरों को तृप्ति मिलती है तथा उनका मोक्ष भी हो जाता है। महाभारत में वर्णित गया में खासतौर से धर्मराज यम, ब्रह्मा, शिव एवं विष्णु का वास माना गया है।

यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अलावा वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख है। इन्हीं वेदियों में प्रेतशिला भी मुख्य है। हिंदू संस्कारों में पंचतीर्थ वेदी में प्रेतशिला की गणना की जाती है।

वायुपुराण में बताया है प्रेत पर्वत का महत्व गया शहर से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर प्रेतशिला नाम का पर्वत है। ये गया धाम के वायव्य कोण में यानी उत्तर-पश्चिम दिशा में है। इस पर्वत की चोटी पर प्रेतशिला नाम की वेदी है, लेकिन पूरे पर्वतीय प्रदेश को प्रेतशिला के नाम से जाना जाता है। इस प्रेत पर्वत की ऊंचाई लगभग 975 फीट है। जो लोग सक्षम हैं वो लगभग 400 सीढ़ियां चढ़कर प्रेतशिला नाम की वेदी पर पिंडदान के लिए जाते हैं। जो लोग वहां नहीं जा सकते वो पर्वत के नीचे ही तालाब के किनारे या शिव मंदिर में श्राद्धकर्म कर लेते हैं। प्रेतशिला वेदी पर श्राद्ध करने से किसी कारण से अकाल मृत्यु के कारण प्रेतयोनि में भटकते प्राणियों को भी मुक्ति मिल जाती है।