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जानिए, क्या है प्रदोष व्रत की कथा?

प्रत्येक माह में जिस तरह दो एकादशी होती हैं, उसी तरह दो प्रदोष भी होते हैं। त्रयोदशी को प्रदोष कहते हैं। हिंदू धर्म में एकादशी को भगवान विष्णु से और प्रदोष व्रत को भगवान शिव से जोड़ा गया है। प्रदोष व्रत, मनुष्य के जीवन को संतोषी व सुखी बनाता है। कहते हैं कि वार के अनुसार जो प्रदोष व्रत किया जाता है, वैसा ही उसका फल प्राप्त होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि त्रयोदशी का व्रत करने वाले को सौ गाय-दान करने के बराबर का फल प्राप्त होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि एक बार चंद्रदेव को क्षय रोग हो गया था, जिसके चलते उन्हें मृत्युतुल्य कष्ट हो रहे थे। भगवान शिव ने उस दोष का निवारण कर उन्हें त्रयोदशी के दिन पुन: जीवन प्रदान किया था। तब से इस दिन को प्रदोष कहा जाने लगा। मान्यता है कि प्रत्येक प्रदोष व्रत की कथा अलग-अलग है। स्कंद पुराण में प्रदोष के महत्व का वर्णन मिलता है। इस व्रत को करने से सभी तरह की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। ब्राह्मणी और शांडिल्य ऋषि की कथा के माध्यम से इस व्रत की महिमा का वर्णन मिलता है। कथा प्राचीनकाल में एक गरीब पुजारी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ एक गांव में रहता था। एक दिन अचानक पुजारी की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के पश्चात, उसकी विधवा, अपने भरण-पोषण के लिए अपने पुत्र को साथ लेकर भीख मांगती हुई शाम तक घर वापस आती थी। एक दिन उसकी मुलाकात विदर्भ देश के राजकुमार से हुई, जो कि अपने पिता की मृत्यु के बाद दर-दर भटकने लगा था। उसकी यह हालत पुजारी की पत्नी से देखी नहीं गई। वह उस राजकुमार को अपने साथ अपने घर ले आई और पुत्र की तरह रखने लगी। एक दिन पुजारी की पत्नी अपने साथ दोनों पुत्रों को शांडिल्य ऋषि के आश्रम ले गई। वहां उसने ऋषि से शिव जी के प्रदोष व्रत की कथा एवं पूजा विधि सुनी और वह अपने घर जाकर प्रदोष व्रत करने लगी। एक बार दोनों बालक वन में घूम रहे थे। उनमें से पुजारी का बेटा तो घर लौट गया, लेकिन राजकुमार वन में ही रह गया। उस राजकुमार ने गंधर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देखा तो उनसे बात करने लगा। उनमें से एक कन्या का नाम अंशुमती था। उस दिन वह राजकुमार घर देरी से लौटा। राजकुमार दूसरे दिन फिर उसी जगह पहुंचा, जहां अंशुमती अपने माता-पिता से बात कर रही थी। तभी अंशुमती के माता-पिता ने उस राजकुमार को पहचान लिया और उससे पूछा कि, “आप तो विदर्भ नगर के राजकुमार हो ना? आपका नाम धर्मगुप्त है?” अंशुमती के माता-पिता को वह राजकुमार पसंद आया और उन्होंने कहा कि, “शिव जी की कृपा से हम अपनी पुत्री का विवाह आपसे करना चाहते हैं। क्या आप इस विवाह के लिए तैयार हैं?” राजकुमार ने अपनी स्वीकृति दे दी और उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ। बाद में राजकुमार ने गंधर्व की विशाल सेना के साथ विदर्भ पर हमला किया और घमासान युद्ध कर, विजय प्राप्त करने के पश्चात, अपनी पत्नी के साथ राज करने लगा। वहां उस महल में वह पुजारी की पत्नी और उसके पुत्र को आदर के साथ ले आया और साथ रहने लगा। पुजारी की पत्नी और पुत्र की सारी परेशानियां दूर हो गईं। और वो सुख से अपना जीवन व्यतीत करने लगे। एक दिन अंशुमती ने राजकुमार से इन सभी बातों के पीचे का कारण और रहस्य पूछा। तब राजकुमार ने अंशुमती को अपने जीवन की पूरी बात बताकर प्रदोष व्रत का महत्व और व्रत से प्राप्त फल से भी अवगत कराया। उसी दिन से प्रदोष व्रत की प्रतिष्ठा व उसका महत्व बढ़ गया और मान्यता के अनुसार लोग यह व्रत करने लगे। कहीं-कहीं तो स्त्री-पुरुष दोनों अपनी श्रद्धा के अनुसार इस व्रत को करते हैं। कहते हैं कि इस व्रत को करने से मनुष्य के सभी कष्ट और पाप, नष्ट हो जाते हैं और उन पर भगवान शिव की कृपा बानी रहती है।