सावन का महीना शिव भक्ति और प्रेम का महीना माना जाता है । इस महीने में भगवान शिव की आराधना का विशेष विधान है । सावन में सोमवार और शिवरात्रि के साथ ही हरियाली तीज और रक्षाबंधन जैसे कई त्योहार मनाये जाते हैं । इन्ही में से एक त्योहार है ‘मधुश्रावणी’ जो कि मुख्य रूप से बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र और हमारे पड़ोसी देश नेपाल के कुछ हिस्सों में मनाया जाता है ।
क्या है मधुश्रावणी पर्व ?
‘पग - पग पोखर, माछ मखान’ के लिए प्रसिद्ध मिथिला में कई पारम्परिक त्योहार आज भी मनाये जाते हैं और उन्हीं में से एक है "मधुश्रावणी" जो मिथिलांचल का एक अनोखा लोकपर्व है । इसमे अंखंड सुहाग और पति के दीर्घायु होने की कामना की जाती है । इस पर्व के दौरान मिथिला में चारों ओर मधुर और मंगल लोक गीत गूंजते हैं । इस पर्व में मिथिला की सांस्कृतिक आभा के साथ-साथ सावन माह की प्राकृतिक हरियाली की भी झलक देखने को मिलती है, इसीलिए इसे ‘मधुश्रावणी’ के नाम से जाना जाता है।
कैसे मनाया जाता है मधुश्रावणी पर्व ?
मधुश्रावणी पर्व दाम्पत्य जीवन में सुख, समृद्धि और पति-पत्नी के बीच आपसी सामंजस्य के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है । मधुश्रावणी का व्रत नवविवाहिता जीवन में सिर्फ एक ही बार, शादी के पहले सावन में ही रखती हैं । इस दौरान गौरी-शंकर की विशेष रूप से पूजा की जाती है जिसमें मिट्टी से महादेव और माता गौरी की प्रतिमा बनाई जाती है । इसके अलावा हाथी ,नाग-नागिन और उनके पांच बच्चों की प्रतिमा बनाकर भी उनकी पूजा की जाती है । सुबह-शाम नाग देवता को दूध-लावा का भोग लगाया जाता है। अखंड सौभाग्य की कामना करते हुए नवविवाहित स्त्रियां माता पार्वती की प्रतिमा पर हल्दी और कुमकुम का लेप करती हैं और पूजा के अंतिम दिन मिट्टी से बनी सभी प्रतिमाओं को विसर्जित अर्थात जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। चूंकि यह पर्व गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाने की कामना के साथ मनाया जाता है, इसलिए इसमें शिव परिवार की पूजा का विशेष विधान है।
अधिकमास की वजह से ज्यादा व्रत
‘मधुश्रावणी’ पर्व सावन के महीने के कृष्ण पक्ष की पंचमी से शुरू होकर शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को संपन्न होता है अर्थात लगभग 15 दिनों का होता है । लेकिन इस साल (2023) सावन के साथ अधिकमास होने के कारण यह पर्व 1 महीने 12 दिनों है , जिस वजह से व्रत भी ज्यादा लम्बा हो रहा है ।
जब देनी पड़ती है "अग्निपरीक्षा"
पर्व में व्रत के साथ-साथ एक ‘अग्निपरीक्षा’ भी दी जाती है जिसमे पति अपनी पत्नी के घुटने पर पूजा घर में रखे गए दीपक की जलती बाती से प्रेम पूर्वक दागता है। इस परंपरा को मिथिलांचल में ‘टेमी दागना’ भी कहते हैं । इस दौरान सोलह श्रृंगार कर सजी-धजी दुल्हन के रूप में नवविवाहिता उफ्फ तक नहीं करती। लोक मान्यता है कि घुटने में जितना बड़ा फफोला पड़ता है, पति-पत्नी में प्यार उतना ही गहरा होता है। इस तरह ये अनोखी परंपरा नवयुगल के बीच प्रेम और विश्वास को मजबूत करने के लिए निभाई जाती है।
एक तपस्या है मधुश्रावणी की पूजा
परम्परा यह भी है कि व्रत रखने वाली स्त्रियां लगातार 15 दिनों तक केवल एक ही समय बिना नमक वाला भोजन करती हैं और जमीन पर सोती हैं । ऐसे में इस बार अधिकमास की वजह से यह व्रत और भी कठिन होने वाला है । पूजा के अन्तिम दिनों में व्रती परिवार और समाज के लोगों को अंकुरी बांटती है। स्त्रियां गाँव के आसपास के मन्दिरों और बगीचों से फूल और पत्ते लाकर सुंदर सा डाला भी सजाती हैं और इसके फूलों से अगले दिन नागवंश की पूजा करती हैं । महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इस पूरी पूजन प्रक्रिया में कोई पुरुष पुरोहित नहीं होता । नवविवाहित स्त्रियां मायके में रह कर यह पर्व मनाती हैं और अंतिम दिन पति का भी शामिल होना आवश्यक होता है । साथ ही आशीर्वाद देने ससुराल से बड़े-बुजुर्ग भी आते हैं । अर्थात यह ऐसा पर्व है जिसमें मायके और ससुराल पक्ष का सुखद सामंजस्य देखने को मिलता है ।
तो इतना अनूठा और पवित्र है मधुश्रावणी पर्व । विशेष बात यह है कि सदियों से चली आ रही इस परम्परा को संजोये रखने में नये दौर के नवविवाहित युवा स्त्री-पुरुष भी पीछे नहीं हैं और हर वर्ष यह पर्व पूरे मिथिलांचल में पूरी आस्था के साथ मनाया जाता है ।
अक्षरा आर्या