भजन, कीर्तन या जोर- जोर से प्रभु के नाम का जाप हम अक्सर सुनते हैं और करते भी हैं, लेकिन साल में एक दिन ऐसा भी आता है जब शांत रहकर यानि मौन रहकर प्रभु का स्मरण किया जाता है, और इसी दिन को मौनी अमावस्या के नाम से जानते हैं। आखिर मौन क्यों रहा जाता है और मौन रहकर कैसे पूजा की जाती है । आइये जानते हैं
हर माह अमावस्या की तिथि भी आती है लेकिन माघ महीने की अमावस्या मौनी अमावस्या के नाम से जानी जाती है । चूंकि अमावस्या का दिन अपने पितरों को याद कर उनके नाम पर तर्पण और दान करने के लिए होता है इसलिए मौनी अमावस्या के दिन मौन रहकर ईश्वर और पितरों की भक्ति का विधान है । इस दिन किसी पवित्र सरोवर या नदी अथवा घर में गंगा जल मिले पानी से स्नान के बाद दूध, शहद, चावल और तिल मिले जल से पितरों का तर्पण करना चाहिए।
क्या है इस दिन का पितरों से संबंध ?
शास्त्रों के अनुसार माघ महीने की मौनी अमावस्या के दिन ब्रह्मा जी के मानस पुत्र स्वयंभू मनु का जन्म हुआ था, जो इस धरती पर भगवान के सबसे पहले भक्त हुए । मनु का अर्थ ही है मन की शांति और यहीं से मौन शब्द की उत्पत्ति हुई । इसलिए माघ माह की अमावस्या को मौनी अमावस्या नाम दिया गया । यही कारण है कि इस दिन मौन रहकर साधना का विशेष महत्व है। अपने चित्त को एकाग्र कर भगवान और अपने पुरखों की आराधना करनी चाहिए। भगवान शिव मृत्यु के देवता हैं इसलिए इस दिन महादेव की आराधना से पितृ संतुष्ट होते हैं और जातक के लिए भी अकाल मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। वहीं जगत के पालनहार भगवान नारायण की पूजा से भी पितृ प्रसन्न होते हैं और जातक को उनकी कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है । इस प्रकार पितरों के साथ ही इस दिन भगवान शिव और विष्णु जी का ध्यान अवश्य करना चाहिए । सभी स्नान-दान भी उन्हें समर्पित करने चाहिए।
क्या है मौनी अमावस्या की कथा
मौनी अमावस्या को लेकर पुराणों में कई उल्लेख मिलते हैं । एक कथा के अनुसार कांची नगर में देवस्वामी नाम के एक ब्राह्मण रहा करते थे जिनके 7 पुत्र और एक पुत्री थी। एक बार देवस्वामी ने पुत्री के विवाह के लिए एक ज्योतिष से संपर्क किया तो उसने कुंडली के आधार पर बनी ग्रहदशा के अनुसार बताया कि विवाह के बाद पुत्री विधवा हो जाएगी । यह सुनकर देवस्वामी और उनकी पत्नी चिंतित हो गए लेकिन ज्योतिष ने उन्हें समस्या का समाधान भी बताया कि सिंहलद्वीप की धोबिन सोमा की पूजा करने से ये दोष दूर किया जा सकता है। देवस्वामी ने ऐसा ही किया जिससे उनकी पुत्री को सोमा ने आशीर्वाद स्वरूप पति के जीवनदान का वरदान दिया। कुछ समय के बाद जब ब्राह्मण की पुत्री के पति की मृत्यु तो हुई लेकिन सोमा से मिले वरदान से वो दोबारा जीवित हो उठा । आगे चलकर जब वरदान का प्रभाव क्षीण पड़ गया तो फिर से उसके पति की मृत्यु हो गई। इसके बाद देवस्वामी दंपति ने पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर मौनी अमावस्या के दिन भगवान विष्णु की पूजा विधिवत रूप से की और मान्यता है कि ऐसा करने से उनकी पुत्री का पति फिर से जीवित हो गया तभी से मौनी अमावस्या के दिन भगवन विष्णु की आराधना का विशेष महत्त्व है ।
तिल दान से नारायण की मिलती है विशेष कृपा
मौनी अमावस्या के दिन ही कल्पवास का भी समापन होता है कल्पवास, यानि संगम तट पर अपनी सभी सुख सुविधाओं का त्याग कर ईश्वर की आराधना करना और वेदों का अध्ययन करना । माघ के महीने में हर साल संगम तट पर लोग कल्पवास करते हैं और अमावस्या के दिन का इंतजार करते हैं। इस महीने में भगवान नारायण के अंग से प्रकट हुए तिल का खास महत्व बताया गया है। किसी भी रूप में तिल का दान और वस्त्र दान करने से भी नारायण की कृपा प्राप्त होती है ।
इस तरह मौनी अमावस्या की महिमा अपरंपार है। वैसे भी सनातन संस्कृति में मौन एक साधना के समान है और हमारे जीवन में मौन एक विशेष स्थान रखता है। मौन रहने से मन के विचारों को हम नियंत्रित कर पाते हैं और परमात्मा का ध्यान लगा पाते हैं
अक्षरा आर्या