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क्यों करनी चाहिए चारधाम की यात्रा, क्या मिलता है शुभ फल ?

उत्तराखंड के चारधाम की महिमा 

देवभूमि उत्तराखण्ड…..भारत के उत्तर-पश्चिम दिशा में बसा ये हिमालयी राज्य, देवभूमि के नाम से जाना जाता है। हर वर्ष देश-विदेश से लाखों सनातनी यहां के दिव्य तीर्थस्थलों का दर्शन कर पुण्य प्राप्त करने आते हैं। उत्तराखण्ड कि चारधाम यात्रा से पूरे विश्व में बसे हिंदुओं की आस्था जुड़ी हुई है। आइये इस पावन और फलदायी यात्रा की महिमा के बारे में विस्तार से जानते हैं।    

यात्रा का श्रीगणेश होता है यमुनोत्री के रास्ते में पड़ने वाले श्रीनगर के धारी देवी मंदिर में मत्था टेककर। झील के बीचों-बीच बने इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि मां धारी, पहाड़ों, चारधामों और तीर्थयात्रियों की रक्षा करती हैं। इसलिए यहां हाजिरी लगाने के बाद ही तीर्थयात्री यात्रा के पहले पड़ाव यमुनोत्री की ओर बढ़ते हैं। 


यमुनोत्री धाम 

यमुनोत्री धाम वो पवित्र स्थान है जहां यमुना नदी अवतरित हुईं हैं। ये धाम हर साल अक्षय तृतीया के दिन विधि विधान के साथ खोला जाता है और मान्यता है कि यहां यमुना में स्नान करने और जल ग्रहण करने से मनुष्य पाप मुक्त हो जाता है। ब्रह्मांड पुराण में यमुनोत्री धाम के बारे में विस्तार से बताया गया है।

यमुना को सूर्य और छाया की पुत्री कहा गया है। यमराज, शनिदेव और वैवस्वत मनु इनके भाई हैं जबकि बहन हैं ताप्ती। यमुना जी ने अक्षय तृतीया से कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितिया तिथि तक एक विशेष अनुष्ठान किया था जिसके प्रभाव से यमराज को मृत्यु के देवता और शनिदेव को दंडनायक का पद मिला। अपने भाई से आशीर्वाद स्वरूप मां यमुना को वरदान मिला कि जो भी यमुनोत्री धाम में दर्शन-स्नान करेगा वो कभी यमलोक के द्वार नहीं देखेगा और परमगति को प्राप्त होगा।  

यमुनोत्री धाम मंदिर के पास एक प्राकृतिक कुंड ऐसा भी है जिसमें हमेशा गर्म पानी निकलता है, चाहे बाहर कितनी भी ठंड हो। इसे सूर्य कुंड कहा जाता है। गर्म झरने में आलू और चावल पकाकर भक्त इसे मंदिर में चढ़ाते हैं और पके हुए चावल को प्रसाद के रूप में घर ले जाते हैं। 


गंगोत्री धाम

उत्तराखंड की चारधाम यात्रा का दूसरा पड़ाव गढ़वाल का गंगोत्री धाम, देवी गंगा का उदगम स्थल है। यहां भी एक प्राचीन मंदिर है जिसकी दिव्य आभा भक्तों के लिए सुखदायक है। नदी के उद्गम को भागीरथी कहा जाता है और देवप्रयाग में संगम पर अलकनंदा, मन्दाकिनी और भागीरथी मिलतीं हैं तो गंगा कहलातीं हैं। 

हिंदू पौराणिक आख्यानों के अनुसार देवी गंगा ब्रह्मलोक में ब्रह्मा जी के कमंडल में वास करती थीं। राजा भगीरथ ने ब्रह्मा जी की तपस्या की। ब्रह्मा जी ने राजा भगीरथ को समझाया की गंगा यदि सीधा धरातल पर आएगी तो गंगा का वेग तेज़ होने से पृथ्वी सहन नहीं कर पाएगी और प्रलय आ जाएगी इसके लिए तुम भगवान शिव की तपस्या करो। शिवजी भागीरथ की तपस्या से प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा, भगीरथ ने अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए मां गंगा को धरती पर लाने की प्रार्थना की। तब ब्रह्माजी ने अपने कमंडल से गंगा की धारा छोड़ी और शिव ने अपनी जटाओं में उसे समेट लिया। वहां से गंगा जी धरती पर प्रकट हुईं। मान्यता है कि, कि गंगोत्री मंदिर की स्थापना भी भागीरथ जी ने की थी। 

केदारनाथ धाम 

उत्तराखंड की चारधाम यात्रा की तीसरा महत्वपूर्ण पड़ाव है केदारनाथ। भगवान शिव जो ब्रह्मांड के कण-कण में बसते है, उन्हीं का कल्याणकारी स्वरूप है केदारनाथ। इस स्थान की महिमा का वर्णन शिवमहापुराण में मिलता है। 
महाभारत के युद्ध में विजय के बाद पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति के लिए शिवजी की कृपा चाहते थे। लेकिन शिव जी पांडवों से रुष्ट थे। पांडव पहले काशी गए पर शंकर जी नहीं मिले। वे उन्हें खोजते हुए हिमालय तक जा पहुंचे। चूंकि भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे इसलिए वो अंतर्ध्यान होकर केदार हिमघाटी में आ गए। पांडव भी लगन के पक्के थे और एक दिन वहां भी पहुंच गए। शिव जी ने उन्हें देखते ही बैल का रुप रख लिया और अन्य पशुओं से जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था इसलिए भीम ने दो पहाड़ों पर अपना पैर फैला दिया। अन्य बैल तो निकल गए लेकिन शिव जी रुपी बैल, पैर के नीचे से जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। भीम उस बैल पर झपटे लेकिन वो जमीन में समाहित होने लगा। तब भीम ने बैल के ऊफर का त्रिकोणात्मक भाग यानी कूबड़ पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की दृढ़ इच्छाशक्ति और भक्ति को देख कर प्रसन्न हुए और उसी क्षण उन्हें दर्शन देकर भ्रातृहत्या के पाप से मुक्त कर दिया। चूंकि कूबड़ को संस्कृत में केदार कहते है इसलिए भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति के रुप में केदारनाथ में पूजे जाते है। 

बद्रीनाथ धाम 

उत्तराखंड चारधाम यात्रा का अंतिम पड़ाव है जगत के पालनहार श्रीहरि विष्णु का पावन स्थान बद्रीनाथ। आस्था और भक्ति का एक दिव्य धाम जहां भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी के साथ निवास करते है। ये धाम अलखनन्दा नदी के तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों पर बसा है। यहां की महिमा का जितना भी बखान किया जाए कम है।

मंदिर परिसर में 5 स्वयंभू मूर्तियां है जिनमें भगवान बद्रीनारायण का श्रीविग्रह 1 मीटर ऊंचे काले पत्थर का है। इस प्रतिमा में नारायण ध्यान मग्न मुद्रा में सुशोभित हैं। इसी ताप मुद्रा के तेज के प्रभाव से एक गरम जल धारा निरंतर निकलती रहती है जिसे तप्त कुण्ड कहा जाता है। भगवान बद्रीनारायण के दाहिने ओर कुबेर तो बाईं ओर नर-नारायण के विग्रह और देव ऋषि नारद हैं। वहीं देवी लक्ष्मी बद्री अर्थात बेर के वृक्ष के रूप में विद्यमान हैं। भगवती लक्ष्मी के इसी समर्पण के कारण यह स्थान बरी के नाथ अर्थात बद्रीनाथ के नाम से जाना जाता है। धरती का बैकुंठ कहे जाने वाले इस धाम की एक लंबी पौराणिक पृष्ठभूमि है। 

यहां की प्रतिमा की स्थापना सबसे पहले देवताओं ने की थी। फिर देवऋषि नारद, नर और नारायण एवं महाराज कुबेर ने यहां तप किया।  जिस शिला पर तप किया वो आज भी यहां अलखनंदा नदी के किनारे मौजूद है। भगवान विष्णु ने उस प्रतिमा में से दिव्य स्वरुप में प्रकट होकर दर्शन दिये और यहां की महिमा बताते हुए इसे अपना निवास बताया। कालांतर में आदि गुरु शंकराचार्य ने अलखनंदा नदी से इस मूर्ति को निकालकर गर्भगृह में स्थापित किया । कहते हैं यहां ध्यान और तप से मोक्ष का वरदान मिल जाता है।  

चारधाम के कपाट गर्मी के मौसम में मई से नवंबर तक यानी अक्षय तृतीया से भाई दूज तक ही खुलते हैं। बाकी छह महीने यानी सर्दियों में विधिवत अखंड ज्योति प्रज्वलित करने के साथ ही चारों मंदिरों के कपाट बंद रहते हैं। 

:- रजत द्विवेदी