जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब नारायण इस मृत्यलोक में अपने भक्तों के लिए अवतार लेते हैं। ऐसा ही एक अवतार त्रेतायुग में आतताई रावण का अंत करने के लिए श्रीराम का हुआ था । अपने मानव जीवन में प्रभु जिस-जिस से मिले, उसके हृदय में समा गए । कई भक्तों का उद्धार किया और कई राक्षस, देव, संत और सामान्य जनों को मुक्ति का मार्ग दिखाया । प्रभु राम की ऐसी ही अनन्य भक्त थी शबरी, जो जो अपने इस जन्म में ही नहीं , पूर्व जन्म से हरि भक्त थीं।
माता शबरी अपने पूर्व जन्म में रत्नमाला नाम की रानी थीं। एक बार राजा ने उन्हें साधु-संतों के साथ हरि भजन और कीर्तन में शामिल होने से ये कहकर मना कर दिया कि आप रानी हैं, साधु-संतों के बीच नहीं जा सकती। बस फिर क्या था, रानी ने प्रार्थना की कि भगवान की भक्ति के लिए उंच-नीच, जात-पात और पद-सम्मान का भेद कैसा। यदि रानी का पद मुझे प्रभु भक्ति से दूर कर सकता है तो हे नारायण, मैं आपसे ये प्रार्थना करती हूँ कि मुझे अब अगले जन्म में शूद्र और साधु-संतों के जैसा ही जीवन देना जिससे मैं भजन-कीर्तन और संतों की सेवा कर सकूँ । इस तरह रानी रत्नमाला अपने पतिव्रत धर्म और भक्ति के प्रभाव से अगले जन्म में भील समुदाय की शबर जाति में जन्म लेती है जिनका नाम श्रमणा था । श्रमणा की माता उनको प्रेम से शबरी कह कर पुकारती थीं। शबरी के पिता भीलों के मुखिया थे। शबरी बाल्य अवस्था से ही पवित्र मन, चंचल स्वभाव और पूर्व जन्म के पुण्य प्रभाव से पशु-पक्षियों, साधु-संतों और भगवान के प्रति बहुत प्रेम रखती थीं। समय बीतता गया और शबरी का मन दयालुता, हरि भक्ति और सत्संग में और रमता गया। अब तो उनके माता-पिता को यह बात सताने लगी की कहीं शबरी वैरागी या जोगन ही ना बन जाएं। ये सब देखकर उनके माता-पिता बहुत परेशान रहने लगे। इसी डर से उन्होंने शबरी का विवाह तय कर दिया। जब शबरी को इस बात का पता चला कि उनकी शादी में पशुओं की बलि दी जाएगी तो वो बहुत विचलित हुईं । उन्होंने तय किया अगर इतने निर्दोष प्राणियों की हत्या की जाएगी तो मैं विवाह नहीं करूँगी। शबरी रात में ही पशुओं को मुक्त कर घर से निकल जाती हैं। इस प्रकार शबरी जंगल-जंगल घूमती हुई और हरि भजन करती दंडकारण्य वन आ गईं।
यहां कई ऋषि-मुनि रहा करते थे । जिनमें परम कृपालु मतंग ऋषि का भी आश्रम था । शबरी ने उस वन में आश्रय तो ले लिया पर मन में यह चिंता सताए जा रही थी कि भीलनी होने की वजह से ऋषि-मुनि उसकी सेवा अस्वीकार ना कर दें। इसी डर से शबरी हर दिन ऋषि-मुनियों के जागने से पहले ही आश्रम के पास रास्ते में पड़े कांटों को हटाकर वहाँ पर फूल बिछा देती थीं । एक दिन मतंग ऋषि ने उनके इस सेवा भाव को देखकर उन्हें अपने आश्रम में रहने की अनुमति दे दी और उन्हें अपनी शिष्या के रूप में स्वीकार कर लिया। शबरी भी पूरी निष्ठा से अपने गुरु की सेवा करतीं और राम जी का भजन करती रहतीं। एक दिन मतंग ऋषि ने शबरी को अपने पास बुला कर कहा कि पुत्री तुमने आजीवन मेरी सेवा की है, मैं तुमको आशीर्वाद देता हूँ कि एक दिन नारायण अवतार प्रभु राम तुम को
यहीं दर्शन देने अवश्य आएंगे, तुम उनको पहचान लेना और उनके श्रीचरणों में समर्पित हो जाना । यह कहते हुए ऋषि मतंग ने अपनी देह त्याग दी। शबरी गुरुआज्ञा से हर दिन श्रीराम की प्रतीक्षा करती कि मानो वो आज ही आने वाले हैं। रोज सुबह जागकर राह में पड़े कंकड़-पत्थर साफ करती और कांटे चुन कर फूल बिछाती। फूलों को डलिया में रख अपने प्रभु की राह तकती रहती। रास्तों को ऐसे निहारती जैसे प्रभु बस क्षण भर में आने वाले हों। ऐसे ही समय निकलता गया और उम्र बीतती गई, पर राम नाम की रट नहीं छूटी, आखिर वो दिन आ ही गया जब अयोध्या के राजकुमार श्रीराम ने अपने भाई लक्ष्मण के साथ शबरी की कुटिया में चरण रखा । गोस्वामी जी रामचरितमानस में लिखते हैं कि …
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए
अर्थात : उदार श्रीराम गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे। रामचंद्रजी को अपने घर में पाकर शबरी ने मुनि मतंग के वचनों को याद किया जिससे उनका मन प्रसन्न हो गया ।
प्रभु राम को देखते ही शबरी उनके चरणों में गिर पड़ीं, मानो सारा संसार ही मिल गया हो, खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। गोस्वामी जी कहते हैं ....
प्रेम मगन मुख बचन न आवा, पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा
सादर जल लै चरन पखारे, पुनि सुंदर आसन बैठारे
अर्थात : वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से कोई शब्द ही नहीं निकल रहा, बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और उन्हें सुंदर आसनों पर बैठाया
गोस्वामी तुलसीदास इस क्षण का वर्णन करते हुए आगे कहते हैं....
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि
अर्थात : उन्होंने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्रीराम को दिए, प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रेम सहित खाया
फिर माता शबरी ने प्रभु राम को अपने गुरू मतंग ऋषि के बारे में बताया । प्रभु राम ने माता शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान दिया। नवधा भक्ति अर्थात नौ प्रकार की भक्ति । जिसे स्वयं श्रीराम से ज्ञान मिला हो उसका जीवन धन्य है और उन्ही में से एक हैं माता शबरी… शबरी ने अपना पूरा जीवन प्रभु भक्ति को समर्पित कर दिया, इसके बाद से ही श्रीराम को 'शबरी के राम' कहा जाने लगा।
:- रमन शर्मा