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गणेशोत्सव : हजारों वर्षों की अखंड परंपरा (वेदों में प्रतिपादित सनातन गणपति की महिमा)

महामन गणाधिपति, सभी गणों के अधिपति गणनायक भगवान श्री गणेश के इस उत्सव की, जो 26 अगस्त से प्रारंभ होकर 6 सितंबर 2025 तक चलेगा, देश और दिग दिगन्त तक विस्तारित समस्त सनातन प्रेमियों को अतिशय मंगल कामनाएँ, अतिशय शुभाशीष। विघ्न विनाशक भगवान गणेश आपके जीवन में सभी प्रकार के सुख, समृद्धि, आरोग्य, धन-धान्य, पद-प्रतिष्ठा, चतुर्दिक विस्तार, एवं आपके सर्वत्र संकल्पों के प्रतिपूर्ति के सहायक हों। उसमें आपके लिए वो विशेष रूप से कृपा दृष्टि के हेतु बनें। ऐसी हमारे मंगल कामना और आशीर्वाद।

 

बहुत सारे जन, भगवान गणेश जी के जो उत्सव हैं, जैसे जैसे इनका विस्तार हो रहा है, उसके साथ बहुत तरह के दिग्भ्रमित संदेश भी प्रचारित करते हैं। खास तौर से जो विधर्मी हैं या जो सनातन और हमारे वैदिक परंपराओं को नहीं मानते या उनके प्रति उनकी विश्वास और आस्थाओं को डिगाने का प्रयास करते हैं, उन्होंनें नए तरह की बातें प्रसारित करना शुरू की हैं; कि गणेश जी पूजा पिछले पचास-सौ वर्षों में ही शुरू हुई है। मैं ऐसे उन दिग्भ्रमित व्यक्तियों के लिए भी और जो हमारे सनातन धर्म प्रेमी हैं उनके लिए भी बता दूँ, कि हज़ारों वर्ष से भगवान गणेश उत्सव का आयोजन होता रहा है। विभिन्न काल खण्डों में अलग-अलग ढंग से भगवान श्री गणेश के विविध स्वरूपों की अर्चना प्रार्थना, पुष्पार्चन, अभिषेकम, और विभिन्न विधियों से उनके अनुष्ठान करते रहे हैं।

 

स्तौमि गणेशं परात्परम्, 
एक मंत्र आता है ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखंड १२१ वे क्रमांक पर:
“परं धाम परं ब्रह्म परेशं परमीश्वरम् ।
विघ्ननिघ्नकरं शान्तं पुष्टं कान्तमनन्तकम् ॥
सुरासुरेन्द्रैः सिद्धेन्द्रैः स्तुतं स्तौमि परात्परम् ।
सुरपद्मदिनेशं च गणेशं मङ्गलायनम् ।।”

 

जो भगवान गणेश परम धाम, परमब्रह्म, परेशम हैं, परम ईश्वरम् हैं, विघ्नों के विनाशक हैं, शांत हैं, पुष्ट हैं, मनोहर हैं, अनंत हैं, प्रधान हैं और प्रधान सुर-असुर और सिद्ध जिनका स्तवन करते रहे हैं और करते हैं। जो देव रूपी कमल के लिए सूर्य और मंगलों के आश्रय स्थल हैं उन परात्परगणेश भगवान को हम नमन करते हैं। उनकी हम स्तुति करते हैं। यह ब्रह्मवैवर्तपूर्ण में आता है, जो की हज़ारों वर्ष पुराना है।

 

इसके अलावा ऋग्वेद, हमारे वेदों में सर्वाधिक प्राचीन माना गया है। ऋग्वेद के 10 मंडल के, 121 सूक्त के 9 मंत्र में श्री गणेश जी के स्तवन की व्याख्या हमे मिलती है। ऋग्वेद के ही 2 मंडल के 23 वे अध्याय ले 1 मंत्र में गणेश जी की स्तुति की व्याख्या प्राप्त होती है। ऋग्वेद के कालखण्ड को अगर हम मैक्स मूलर के हिसाब से भी उसकी गणना को मानें, जो पश्चिम ने भी स्वीकार किया है तो उस हिसाब से भी अस्सी हज़ार वर्ष पूर्व से शुरू होकर दस हज़ार वर्ष पूर्व के कालखंड में ऋग्वेद के अलग अलग ढंग से मंडलों की चर्चाएँ हमें देखने को प्राप्त होती है।
कम से कम दस हज़ार वर्ष पहले भी भगवान श्री गणेश की स्तुति और प्रार्थनाएँ वेदों में की जा रही थी।

 

तैत्तिरीय आरण्यक, प्रपाठक 10, अनुवाक 1 के मंत्र में :
“तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥”

ये गायत्री की है भगवान गणेश की। वहाँ भी हमें गणेश जी की महिमा और प्रतिष्ठा के दर्शन होते हैं।

शुक्ल्यजुर्वेद 23.19 में :
“गणानां त्वा गणपति (गूं) हवामहे,
प्रियाणां त्वा प्रियपति (गूं) हवामहे,
निधीनां त्वा निधिपति (गूं) हवामहे,
वसो मम आहमजानि गर्भधमा
त्वमजासि गर्भधम्मः ।।”

 

हम सबसे पहले प्रार्थनाओं में, पहले अभिषेकम में, सभी तरह के संकल्पों में इस मंत्र का उल्लेख करते हैं, स्तुति करते हैं। तो हमें विभिन्न ग्रंथों के माध्यम से हज़ारों वर्ष पूर्व से ही इन पूजा पद्धतियों के भगवान श्री गणेश की प्रतिष्ठा का सन्दर्भ प्राप्त होता है।

 

शुक्लयजुर्वेद के ही 16.25 मंत्र में एक श्लोक आता है : 
“नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नमो व्रातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्च वो नमो ।
नमो गृत्सेभ्यो गृत्सपतिभ्यश्च वो नमो नमो विरूपेभ्यो विश्वरूपेभ्यश्च वो नमः ॥”

 

ऋग्वेद 1.40.2 में आता है :
“उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे । 
उपप्रयन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा ॥”

 

अब आप देखेंगे कि हम विविध क्रम में, विविध पूजा के कर्मकाण्डों में, पूजा पद्धतियों में, प्राचीन काल से हज़ारों वर्ष पूर्व से, वेदों के समय से ही भगवान गणेश की स्तुति और प्रार्थना करते रहे हैं। जब ब्रह्मणस्पति की बात की गई है, तो वेदों में भगवान श्री गणेश को बहुत सारे स्थानों पर ब्रह्मणस्पति भी कहा गया है। एक और मंत्र आता है ऋग्वेद के 1.40.3 :
“प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता। अच्छा वीरं नर्यं पङ्किराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥”
ऋग्वेद के ही 1.40.5 में भी भगवान गणपति का हमें उल्लेख देखने को मिलता है। वहाँ कहा गया है :
“प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम् ।
यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे ॥”

 

अगर हम देखें, प्राचीनतम समय से चाहे वैदिक परम्पराएँ हों, चाहे सनातन धाराएँ हों, चाहे पूजा पाठों के तौर तरीके और उपक्रम रहे हों। सभी स्थानों पर भगवान गणेश की मान्यता, प्रतिष्ठा और हम उपस्थिति देखते रहे हैं। मैंने यह संदर्भ इसीलिए आपके साथ साँझा किए कि उस बात को हम समझें, चूँकि कुछ अलग ढंग से समाज में आख्यान स्थापित किए जाते। जैसे कि पचास साल से, बीस साल, दस साल से पूजा हो रही है और कई बार उस अवधि को इंगत करके उन पूजाओं की मनाही की जाती है। तो जब इस दुनिया में ना किसी धर्म का अस्तित्व था, ना किसी पूजा पद्धति का अस्तित्व था, ना मत मतान्तर थे, ना ही बहुत सारे देश इस दुनिया में विद्यमान थे तब भी भगवान गणेश की स्तुति वंदना और प्रार्थनाएँ, उपासनाएँ और पुष्पार्चन और अनुष्ठान दिग दिगन्त को चहूँ और सुवासित कर रहे थे, सुगन्धित कर रहे थे, सनातन की ऊर्जा से ऊर्जस्वित कर रहे थे, और परमात्मा के प्रताप से हम मनुजों का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। इस महापर्व की, इस गणपति उत्सव की सभी को अतिशय मंगल कामनाएँ, बहुत बधाइयाँ !

 

:- जगद्गुरु प्रोफेसर पुष्पेंद्र कुमार आर्यम जी महाराज