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भारत की लोक संस्कृति विस्तृत और बहुआयामी है। हर क्षेत्र की अपनी विशिष्ट लोक कलाएं हैं जिनका अभिव्यक्ति के लिए उपयोग किया जाता है। भावनाओं से जुड़ी यह लोक सांस्कृतिक परंपराएं हमारी थाती हैं जिसमें चित्रकारी, नृत्य-नाट्य, गायन और वादन भी सम्मिलित हैं। ऐसा ही एक वाद्य यंत्र है ढोल। क्षेत्रीय विविधताओं के साथ व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले डबल-हेड ड्रम के कई प्रकार होते हैं।
देव भूमि उत्तराखंड अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है। यहां के गीत और संगीत न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि पहाड़ी जीवन और धार्मिक परंपराओं का अहम हिस्सा भी हैं। ऐसे में ढोल का स्थान विशेष है, जिसे यहां की संस्कृति में बेहद महत्व दिया जाता है। विवाह, मांगलिक अवसर, देवताओं की डोली जैसे अवसरों पर ढोल बजाना अनिवार्य माना जाता है। खुशी और उल्लास के अवसरों पर ढोल की थाप पर लोग पारंपरिक लोकनृत्यों के साथ थिरकते हैं और यह दृश्य उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा बन गया है।
भारत के अन्य हिस्सों में ढोल अधिकतर मनोरंजन के लिए बजाया जाता है, लेकिन पहाड़ों में इसका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी है। यह पहाड़ी संस्कृति में सामाजिक, धार्मिक और लोक कलाओं का संगम है और ढोल इस विरासत का एक अनिवार्य हिस्सा है। उत्तराखंड में मानव जीवन के सभी संस्कारों में ढोल बजाना भी शामिल माना जाता है।

